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ब्लॉग-जगत मे 'बात' : "बात की चूड़ी मर गई"

ब्लॉग-जगत मे 'बात' : "बात की चूड़ी मर गई" हम ब्लागर हैं. हम विचार चुनते हैं, बहुधा सोचते हैं..और देर-सबेर उसे पोस्ट मे तब्दील करते हैं..टिप्पणियाँ आती हैं...लोग कहते हैं कि चर्चा शुरू हो गई. अब हम टिप्पणियाँ कर रहे हैं. प्रति टिप्पणियाँ कर रहे हैं..हम टिप्पणी शायद विषय पर कर रहे हैं...वस्तुपरक होकर कर रहे हैं...आ हा हा..ना ना व्यक्तिपरक होने लगे ...चर्चा गुम नई चर्चा शुरू...तो ठीक है कुछ भी हो हमे क्या टिप्पणियाँ तो बढ़ी रही हैं....तो फिर क्या हुआ कि वो बात खो गई जिस पर कुछ कहना था, वह विचार गुम हो गया जिसे हमने चुना था कि कोई सार्थक बहस होगी और लेखन का दायित्व (?) पूरा होगा...तो अब हमारी ब्लॉग-आर्काइव मे बस पोस्ट बचते  हैं , टिप्पणियाँ रह जाती हैं..बात-दर-बात, बात कुछ और ही बात मे तब्दील हो जाती है पर हमे क्या, हम तो दनादन लिखे जा रहे हैं...टिप्पणियों की सेंचुरी बनाते जा रहे हैं...वैसे भी यह हमारा ब्लॉग है..हमारी कलम है..दायित्व की चिंता से हमे क्या लेना-देना...हमे बात उठाना था...टिप्पणी पाना था...बात आगे बढ़े, बदल  जाये, कहीं और पहुँच जाये..तो क्या...अपनी बला से...!

माँ

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सच है माँ के कर्तव्य कभी ख़तम नहीं होते.. ! डा. अनुराग जी  की पोस्ट  यथार्थ का क्रास वेरिफिकेशन  पढ़ते हुए एक बेहद अच्छी कविता याद आ गयी जो मैंने कभी कादम्बिनी में पढी थी और जिसे राहुल राजेश जी ने लिखा है.आज वही आप सभी के समक्ष रख रहा हूँ...!!! माँ  "जहाँ ठहर जाए  वहीं घर.. जिसे छू ले  वही तुलसी.. जिसे पुकार दे  वही बेटा.. जब जागे  तब बिहान.. जब पूजे  तब नदी.. जब निरखे  तब समुद्र.." चित्र साभार :गूगल 

लेकॉनिक टिप्पणी का अभियोग ........ऐसा है क्या....? प्रेरणा : आदरणीय ज्ञानदत्त जी...

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लेकॉनिक टिप्पणी का अभियोग ........ऐसा है क्या....? प्रेरणा : आदरणीय ज्ञानदत्त जी. ..  भूमिका : आजकल व्यस्त हूँ, या यूँ कहें कुछ ऐसा ही रहना चाहता हूँ. मै जिस मध्यम स्तरीय पारिवारिक विन्यास से हूँ वहां अभी कुछ समय पहले तक सेलफोन भी विलासिता का प्रतीक माना जाता रहा है तो लैपटॉप और उसमे भी इन्टरनेट कनेक्शन...शायद सरासर विलासिता. अभी मेरा कैरियर मुझसे और ढेर सारा पसीना मांग रहा है और चाहिए उसे स्पर्श integrated and comprehensive time management  का.  तो समय मेरे लिए केवल कीमती ही नहीं है वरन उसका असहनीय दबाव भी रहता है लगातार. लिखना अच्छा लगता है तो ब्लागरी पर नज़र गयी. अचानक से ब्लोगिंग हाथ लगी और हम आ गए धीरे-धीरे रौ में. पर एक अपराध बोध लगातार चलता रहता है मन में कि शायद मेरी दिशा ठीक नहीं है. शायद मै समय गवां रहा हूँ या ब्लागरी तो कभी की जा सकती है. या ऐसा भी क्या है ..मिलता क्या है..कुछ/न्यूनाधिक  टिप्पणियां...!!! अपराध-बोध का कम होते जाना  : शुरू में बस लिखता गया. ब्लाग-एग्रीगेटर्स के बारे में कुछ पता नहीं था. मुझे लगता था कि एक डायरी सा है जो आनलाईन है, any time easily accessible a

तुमसे...!!!

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सुबह एक अनगढ़ गजल सी रचना डाल थी, मैंने.."अब सवाल ज्यादा सुकून देते हैं.." उस वक़्त भी जानता था कि इसमे ठीक-ठाक कमियां हैं..आदरणीय गिरिजेश राव साहब ने एक मीठी झिड़की दी मेल पर और फिर उसी रचना को अपने यत्न भर फिरसे गढ़ने बैठ गया. बड़े भाई श्री अमरेन्द्र जी की सम्मति ली और इसे एक नए पोस्ट के रूप में फिर से डाल रहा हूँ. इस बार शीर्षक भी बदल दिया है... तुमसे...!!! १. तेरे सवाल अब ज्यादा सुकून देते हैं.  दहकते शोलों से ज्यादा जुनून देते हैं. २.सुब्ह-ए-वक़्त में मिलते हो ग़मज़दा होकर.       तेरे  अंदाज  भी  गैरों  का  यकीं  देते  हैं. ३.मुझे खुशियों में भी बेशक हंसा ना पाते हो.       तुम्हारे कह-कहे आँखों को नमी देते हैं. ४.तुम अँधेरा भी नहीं दे सके सोने के लिए.      ख्वाब तनहाइयों के हैं जो जमीं देते हैं. ५. भले खफा हो पर अंदाज कनखियों के तेरे.        कुछ न देकर भी मुझे यार, बहोत देते हैं. #श्रीश पाठक प्रखर  चि त्र साभार:गूगल 

अब सवाल ज्यादा सुकून देते हैं.

मुझे पता है कि मै बस लिखने लगता हूँ. ईमानदारी से मुझे शिल्प का अभ्यास नहीं है. गलतियाँ बर्दाश्त करियेगा..और बदले में मुझे एक मुस्कान दीजियेगा... अब सवाल ज्यादा सुकून देते हैं. अब सवाल ज्यादा सुकून देते हैं. राख, शोलों से ज्यादा जुनून देते हैं. यार तुम,खिलो सहर में भी शायद, गैर वो हर वक़्त चुभने का यकीं देते हैं. हमारी खुशियों में भी बेशक हंसा ना पाते हो, तुम्हारे कह-कहे आँखों को भरपूर नमी देते हैं. अँधेरे भी ना दे सको तुम मुझे सोने के लिए, बेदर्द तन्हाईयाँ ही इसके लिए क्या खूब जमीं देते हैं. मेरी  साख  पर नज़र है शिद्दत से तुम्हारी, तुम्हारी कनखियाँ मुझे फिरसे वजूद देते हैं. #श्रीश पाठक प्रखर  चित्र साभार:गूगल 

कि;

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आज एक बेहद हलकी सी कुछ पंक्तियाँ.. कि; कि; वे दोनों एक-एक जगह के रईस हैं..! कि; उन दोनों की पहुँच बाकी की पहुँच से बाहर है..! कि; वे दोनों एक दूसरे को अपनी बता देना चाहते हैं..! कि; दोनों सामने वाले को अपने सामने कुछ नहीं समझते हैं..! बाकी; उन दोनों को खूब जानते हैं..! कि; पीकर दोनों रोज शाम को झगड़ा करते हैं..!!! #श्रीश पाठक प्रखर  चित्र-साभार:गूगल 

यूँ ही बस इधर-उधर विचरना मन का

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डायरी के पन्नों में क्या कुछ आ जाता है..कई बार उसकी कोई खास वज़ह नहीं होती, यूँ ही बस इधर-उधर विचरना मन का...कोई सन्दर्भ- प्रसंग नहीं..बिलकुल ही उन्मुक्त....उनमे से कुछ आपके समक्ष... किस्मत से मै भिखारी हूँ  और किस्मत से ही मुझे  भीख मिलती है. वरना  'आगे बढ़ो' की सीख मिलती है..!!! सिद्धांत एक ऐसा पुरुष है, जिसे कभी भी एक पतिव्रता नहीं मिलती..!!!  "जान लेकर करता है  खामोशी की शिकायत  दर्द की बात लिखता है  दर्द देने वाला.." ४.  "ख़ता तब से शुरू हो गयी बेइंतिहा       आजमाना जबसे जनाब ने शुरू किया.." देखें; 'श्रीश उवाच' पर- कि; चित्र साभार:गूगल 

"उन्माद की उड़नतश्तरी"

शुरू-शुरू में बस ब्लोगिंग क्या होती है; इस आशय से शुरू किया था. पर जब मैंने देखा कि एक विशाल और विज्ञ पाठक समूह जाल पर है और सक्रिय रूप से अपनी प्रखरता और सजगता के साथ लिख रहा है तो मै धीरे-धीरे यहाँ रमने लगा. फिर तो एक 'परिवार' मिला मुझे जहाँ स्नेह भी था और परामर्श  भी. यहाँ वरिष्ठ-कनिष्ठ का रिश्ता नहीं काम करता. एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी का संवाद यहाँ संभव हो रहा था. मै बस पुलकित हो लिखने लगा, पढ़ने लगा और सीखने लगा. आप सभी का आशीर्वाद अनवरत चाहूँगा... 'कहानी' विधा मुझे बहुत जंचती है पर इसका लेखन अत्यंत कठिन लगता रहा है मुझे...आप सभी के समक्ष यह मेरा  'प्रथम प्रयास'  प्रस्तुत है.."उन्माद की उड़नतश्तरी". कहानी में 'प्रेम' और 'उन्माद' प्रमुख पात्र हैं. यहाँ 'उन्माद' को मैंने 'स्त्रीलिंग' समझा है. आज के चट-पट, तकनीकी जीवन में कितना प्रेम रह गया है और केवल 'उन्माद' की प्रबलता रह गयी है..यही कहना चाहा है, मैंने....!!! "उन्माद की उड़नतश्तरी" मै   ' प्रेम '  हूँ ;  और   ये   ' उन्माद '  है .  क