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Showing posts from December, 2009

ब्लॉग-जगत मे 'बात' : "बात की चूड़ी मर गई"

ब्लॉग-जगत मे 'बात' : "बात की चूड़ी मर गई" हम ब्लागर हैं. हम विचार चुनते हैं, बहुधा सोचते हैं..और देर-सबेर उसे पोस्ट मे तब्दील करते हैं..टिप्पणियाँ आती हैं...लोग कहते हैं कि चर्चा शुरू हो गई. अब हम टिप्पणियाँ कर रहे हैं. प्रति टिप्पणियाँ कर रहे हैं..हम टिप्पणी शायद विषय पर कर रहे हैं...वस्तुपरक होकर कर रहे हैं...आ हा हा..ना ना व्यक्तिपरक होने लगे ...चर्चा गुम नई चर्चा शुरू...तो ठीक है कुछ भी हो हमे क्या टिप्पणियाँ तो बढ़ी रही हैं....तो फिर क्या हुआ कि वो बात खो गई जिस पर कुछ कहना था, वह विचार गुम हो गया जिसे हमने चुना था कि कोई सार्थक बहस होगी और लेखन का दायित्व (?) पूरा होगा...तो अब हमारी ब्लॉग-आर्काइव मे बस पोस्ट बचते  हैं , टिप्पणियाँ रह जाती हैं..बात-दर-बात, बात कुछ और ही बात मे तब्दील हो जाती है पर हमे क्या, हम तो दनादन लिखे जा रहे हैं...टिप्पणियों की सेंचुरी बनाते जा रहे हैं...वैसे भी यह हमारा ब्लॉग है..हमारी कलम है..दायित्व की चिंता से हमे क्या लेना-देना...हमे बात उठाना था...टिप्पणी पाना था...बात आगे बढ़े, बदल  जाये, कहीं और पहुँच जाये..तो क्या...अपनी बला से...!

माँ

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सच है माँ के कर्तव्य कभी ख़तम नहीं होते.. ! डा. अनुराग जी  की पोस्ट  यथार्थ का क्रास वेरिफिकेशन  पढ़ते हुए एक बेहद अच्छी कविता याद आ गयी जो मैंने कभी कादम्बिनी में पढी थी और जिसे राहुल राजेश जी ने लिखा है.आज वही आप सभी के समक्ष रख रहा हूँ...!!! माँ  "जहाँ ठहर जाए  वहीं घर.. जिसे छू ले  वही तुलसी.. जिसे पुकार दे  वही बेटा.. जब जागे  तब बिहान.. जब पूजे  तब नदी.. जब निरखे  तब समुद्र.." चित्र साभार :गूगल 

लेकॉनिक टिप्पणी का अभियोग ........ऐसा है क्या....? प्रेरणा : आदरणीय ज्ञानदत्त जी...

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लेकॉनिक टिप्पणी का अभियोग ........ऐसा है क्या....? प्रेरणा : आदरणीय ज्ञानदत्त जी. ..  भूमिका : आजकल व्यस्त हूँ, या यूँ कहें कुछ ऐसा ही रहना चाहता हूँ. मै जिस मध्यम स्तरीय पारिवारिक विन्यास से हूँ वहां अभी कुछ समय पहले तक सेलफोन भी विलासिता का प्रतीक माना जाता रहा है तो लैपटॉप और उसमे भी इन्टरनेट कनेक्शन...शायद सरासर विलासिता. अभी मेरा कैरियर मुझसे और ढेर सारा पसीना मांग रहा है और चाहिए उसे स्पर्श integrated and comprehensive time management  का.  तो समय मेरे लिए केवल कीमती ही नहीं है वरन उसका असहनीय दबाव भी रहता है लगातार. लिखना अच्छा लगता है तो ब्लागरी पर नज़र गयी. अचानक से ब्लोगिंग हाथ लगी और हम आ गए धीरे-धीरे रौ में. पर एक अपराध बोध लगातार चलता रहता है मन में कि शायद मेरी दिशा ठीक नहीं है. शायद मै समय गवां रहा हूँ या ब्लागरी तो कभी की जा सकती है. या ऐसा भी क्या है ..मिलता क्या है..कुछ/न्यूनाधिक  टिप्पणियां...!!! अपराध-बोध का कम होते जाना  : शुरू में बस लिखता गया. ब्लाग-एग्रीगेटर्स के बारे में कुछ पता नहीं था. मुझे लगता था कि एक डायरी सा है जो आनलाईन है, any time easily accessible a