लिखी मैंने एक गजल: "रूबरू"
लाख सोचों ना हो वो रूबरू यारों, सोच लेने के भरम में दुनिया यारों. साथ देते रहे हर लम्हा मुस्कुराते हुए, शाम हर रोज गिला करके सो जाती यारों. मेरी हर साँस फासले कम करने में गयी, हर सहर, मंजिलें अपनी खो जाती यारों. जबसे जागा है, सुना है, लोगो को गाते हुए, रूबरू वो हो तो आवाज खो जाती यारों. #श्रीश पाठक प्रखर चित्र साभार: वही गूगल, और कौन..