स्मार्ट दूकानदार, मुस्कुराकर, अठन्नी वापस नहीं करता.. शायद फ़िक्र हो.. भिखमंगों की. नये कपड़ों की जरूरत लगातार बनी रहती है शायद फ़िक्र हो हमें, अधनंगों की. चीजें कुछ फैशन के लिहाज से पुरानी पड़ जाती हैं, इमारतों को फ़िक्र हो जैसे, नर-शूकरों की. मासूम बच्चे, उनके कुत्ते, नहलाते हैं; शायद फ़िक्र हो उन्हें, अभागों की. वही नारे फिर-फिर दुहराते हैं, नेता. शायद फ़िक्र हो, कुछ वादों की. मुद्दों पर लोग खामोश, बने रहते हैं, शायद फ़िक्र हो पत्रकारों की. और हाँ, अब गलत कहना छोड़ दिया लोगों ने शायद फ़िक्र हो, अख़बारों की. #श्रीश पाठक प्रखर