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Showing posts from October 12, 2009

निकल आते हैं आंसू हंसते-हंसते,ये किस गम की कसक है हर खुशी में .

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निदा फाज़ली की नज्में कुछ इस तरह चर्चित हैं कि अपने आस-पास साधारण, सामान्य हर तरह का आदमी उनकी पंक्तियाँ कह रहा होता है पर अक्सर सुनाने वाले और सुनने वाले दोनों को ही पता नहीं होता कि ये निदा फाज़ली की लाइनें हैं...निदा फाज़ली उन चुनिन्दा लोगों में शामिल हैं जिन्होंने इस पाप-कल्चर के युग में भी युवाओं को नज्में गुनगुनाने पर मजबूर कर दिया है.. आज उनके जन्मदिवस पर निदा फाज़ली साहब की ही कुछ लाइनें ब्लॉग पर डाल रहा हूँ, जिन्हें मेरे अनन्य मित्र श्री अंशुमाली ने अरसों पहले मेरी डायरी पर लिखा था...   " निकल आते हैं आंसू हंसते-हंसते, ये किस गम की कसक है हर खुशी में  गुजर जाती है यूं ही उम्र सारी;   किसी को ढूँढते है हम किसी में.   बहुत मुश्किल है बंजारा मिजाजी;   सलीका चाहिए आवारगी में."  " फासला नज़रों का धोखा भी हो सकता है, चाँद जब चमकें तो जरा हाथ बढाकर देखो.."   आदरणीय निदा फाज़ली साहब को जन्मदिन की अनगिन शुभकामनायें......

चीनी खाने और गन्ना बोकर, चूसने में अंतर है, नायपाल जी.

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जे.एन. यू में मेरी पहली anchoring जबरदस्त सराही गयी, माँ शारदा को प्रणाम. प्रो. घोष की रसिकता पर मैंने यूं चुटकी ली : "..बदन होता है, बूढा, दिल की फितरत कब बदलती है, पुराना कूकर क्या सीटी बजाना छोड़ देता है....." (संपत सरल) खूब compliments मिले. मुझसे जुड़े सभी प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष को मेरा नमन, धन्यवाद. मुझे जो एक तरह की cultural भूख लगती रहती है, इसने संतृप्त किया. निष्क्रिय नहीं रहा इन दिनों. Research, Blogging आदि में उलझा रहा और बाकि समयों में newspaper और magazines ब्लोगिंग में कुछ लोग बड़े ही अच्छे मिले हैं, सीखने के लिए बहुत कुछ, वाकई...इधर साहित्यिक किताबें भी खूब पढी. अभी कुछ देर पहले ख़त्म की, वी. यस. नायपाल की 'A Wounded Civilization'. मानता हूँ, कुछ देर बाद यह पुस्तक मेरे लिए सहनीय नहीं रही. किसी देश को महज कुछ यात्राओं से कैसे जाना जा सकता है..? सर नायपाल ने कुछ मनपसंद किताबें चुनीं भारतीय लेखकों की, जिनमे उन्हें दोमुहें तर्क मिले; गांधी का व्यक्तिगत जीवन व सार्वजनिक जीवन चुना ( मानो, गांधी की गलतियाँ, भारत की गलतियाँ हों...) और कुछ विशेष मानक प

ये ब्लोगिंग में लाठी-बल्लम...?

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ये इतना घमासान क्यूँ....? किसको साबित करना चाहते हैं..? किसके  बरक्श....? ये कौनसी मिसाल आप सब बना रहे हैं..? सब, सब पर फिकरे कस रहे हैं. आये थे, कुछ बांटने, ब्लॉग लिखने, कुछ सीखने, कुछ बताने,...., ये क्या करने लगे...? ये बार-बार ब्लोगिंग को गोधरा बनाने पर क्यूँ आमादा हैं, कुछ लोग. कोई ऐसी तो नयी बात नहीं कह रहे...धर्मों से जुड़ी ऐसी घृणित बातें तो पहले भी विकृत मन वाले कह गए हैं, इसमे इतना श्रम क्यूँ लगा रहे हैं...शर्म नहीं आती जब एक ब्लॉगर अपनी प्रोफाइल ही डीलीट कर लेता है. सबसे आधुनिक माने जाने वाले माध्यम पर भी आखिरकार हम एक डेमोक्रेटिक स्पेस नहीं ही रच पाए. क्या कहेगा कोई, "ये हिन्दी वाले....".  मैंने देखा है, ज्यादातर ब्लॉगर खासा अनुभवी हैं, जीवन-व्यापार का उन्हें खासा अनुभव है, उम्रदराज भी हैं, पर टिप्पणी पर टिप्पणी बस दिए जा रहे हैं. आप युद्ध नहीं कर सकते यहाँ, उसके लिए, शायद हमने गली,कूंचे,मोहल्ले, सड़क और सीमायें बनायीं है..मन नहीं भरा..यार ब्लोगिंग वाला स्पेस तो बस बहस के लिए रहने दो. गाली-गलौज के लिए जगहों की कमी है क्या..? आस्था को दिल की प्यारी सी कोठरी में संजो