सड़क
[गोरखपुर से सीधे दिल्ली आया तो बहुत कुछ झेलना पड़ा था..उन्हीं दिनों में लिखी थी एक कविता अनगढ़ सी..एक शाम का सच है ये..मै भीड़-भाड़ वाली सड़क से चला जा रहा हूँ और क्या-क्या सोचते जा रहा हूँ..लोग टकरा रहे हैं और ठीक-ठाक बके जा रहे हैं.... ] चलूँ; जरा नुक्कड़ तक, पलट लूं, कुछ मैगजीन ही | फोन पर पापा से मैंने पूछा : और कोई नयी बात पापा ..? "..बस संघर्ष है...तुम बताओ..." "ठीक हूँ..." 'ठीक से चलो ---सामने देखकर..!' पापा का संघर्ष ...अभी समाप्त नहीं हुआ.. 'समय' को अब उनकी कदर करनी चाहिए. समय ही गलत चल रहा है.. 'अरे..! कैसे चल रहा है..?--स्कूटर वाला आँखें निकाले चला गया.' ' सोचता हूँ; कितना कठिन समय है, अभाव, परिस्थिति, लक्ष्य... 'हुंह; सोचने भी नहीं देते, सब मुझसे ही टकराते हैं और घूरते भी मुझे ही हैं..' समय कम है और समय की मांग ज्यादा, जल्दी करना होगा..! 'ओफ्फो..! सबको जल्दी है..कहाँ धकेल दिया..समय होता तो बोलता भी मुझे ही...' इतने संघर्षों में मेहनत के बाद भी.. आशा तो है पर..डर लगता है... जाने क्या होगा..? 'अबे..!