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Showing posts from 2010

लंबे लाल पहाड़

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"इससे पहले कि सांस लूँ कुछ कहने के लिए साहब वे जान लेते हैं मेरी त्यौरियों से कि क्या कह डालूँगा अभी मै. इससे अधिक वे ये जान लेते हैं कि वह ही क्यूँ  कहूँगा मै..! और फिर जब मै कहता हूँ..कुछ तो उन्हें नहीं दिखता मेरा लाल चेहरा, सुखें ओंठ, गीली-सूनी- धंसी आँखें, पिचके गाल, या और कुछ भी. वे मेरी बात में तलाशते हैं मार्क्सवाद, उदारवाद, बाजारवाद, नक्सलवाद, जातिवाद या फिर मजहबी कतरनें. सो सोचा है , कहूँगा नही उनसे  अब कुछ. साँसे जुटाऊंगा , धौंकनी भर-भर कर ताकि घटे ना आक्सीजन उन लम्बे लाल ईर्ष्या-द्वेष के पहाड़ों को लांघते हुए. " #श्रीश पाठक प्रखर  पेंटिंग साभार :Tsuneko Kokubo (स्रोत :गूगल इमेज)

मुझे उम्मीद नही है..!

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मुझे उम्मीद नही है, कि वे अपनी सोच बदलेंगे.. जिन्हें पीढ़ियों की सोच सँवारने का काम सौपा है..! वे यूँ ही बकबक करेंगे विषयांतर.. सिलेबस आप उलट लेना..! उम्मीद नही करता उनसे, कि वे अपने काम को धंधा नही समझेंगे.. जो प्राइवेट नर्सिंग होम खोलना चाहते हैं..! लिख देंगे फिर एक लम्बी जांच, ...पैसे आप खरच लेना..! क्यों हो उम्मीद उनसे भी, कि वे अपनी लट्ठमार भाषा बदलेंगे.. जिन्हें चौकस रहना था हर तिराहे, नुक्कड़ पर..! खाकी खखारकर डांटेगी,...गाँधी आप लुटा देना..! उम्मीद नही काले कोटों से, कि वे तारिख पे तारीखें नही बढ़वाएंगे.. उन्हें  संवाद कराना था वाद-विवादों पर..! वे फिर अगले  महीने बुलाएँगे...सुलह आप करा लेना..! कत्तई उम्मीद नही उन साहबों से, कि वे आम चेहरे पहचानेंगे.. योजनाओं को जमीन पे लाना था उन्हें...! वे मोटी फाइलें बनायेंगे...सड़कें आप बना लेना..! अब क्या उम्मीद दगाबाजों से, कि वे विकास कार्य करवाएंगे.. जनता को गले लगाना था जिनको ..! वे बस लाल सायरन बजायेंगे, ..कानून आप बना लेना..! उम्मीद तो बस उन लोगों से है, जो तैयार है बदलने के लिए इस क्षण भी.. जो जानते हैं कि शुरुआत स्वयं से होगी..! वे खास

लव ..कैन किल यू...!

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"बहुत डगर कठिन है, प्रेम की.... लव ..कैन किल यू...! इन हवाओं में तैरती हैं इतनी नफरतें भी, गुत्थम-गुत्थम परेशां है चाहतें और मन में गोल-गोल घूमती उम्मीदें..! ये उम्मीदें ..कैन किल यू...! क्षितिज पार से आते हैं कुछ चेहरे .. उनपर बजबजाती है अनगिन बातें.. ऊंघता आकाश छितराए से हैं सपनों  के बादल ये सपने..कैन किल यू....! हर तरफ फैला है जहर जज्बातों का.. रंगीन रातों औ' बेहया ख्वाहिशों का.. अंजाम सिफर क्यूँ उन मासूम कोशिशों का.. वे कोशिशें..कैन किल यू...! उफ ये गम  और फिर बार-बार डूबना.. तेरे लिए इतना भी क्यूँ सिसकना.. फिर-फिर दौड़-पकड़  आदतों को पहनना.. ये आदतें..कैन  किल यू...! साथी; रोज चाँद का तनहा डूबना मत देखो.. उसे सोचो उसे लिख लो , प्यार से मत देखो.. उसे जी लो, पी लो , पर उस पार से मत देखो.. ये देखना..कैन किल यू...! मत करो प्यार..इसे बस मौक़ा दो.. इजहार जरूरी नही, एहसास छुपा लो वजह बासी हो ना जाये, सवाल लुटा दो.. प्यारे .. ये प्यार ..देख लेना...वुड किल यू...!" चित्र साभार: गूगल इमेज (ग्रेचर मेयर की एक पेंटिंग: ब्रोकेन हार्ट )

आज की रात देखा मैंने ये स्वप्न : कोई बतायेगा इसके निहितार्थ

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.....सड़क पार कर रहा हूँ, कुछ लोगों के साथ .इनमें एक मेरे आदरणीय मित्र हैं. बाकी अनजाने लोग हैं. उन अनजाने लोगों का मुखिया एक व्यक्ति जो मेरे मित्र का परिचित है, और सफ़ेद कुरता जैसे छात्र-नेता लोग पहनते हैं, पहने हुए है. उसका रुख अच्छा नही है, हम दोनों के लिए. हमें कहीं ले जाया जा रहा है. मेरा इस प्रकरण से कोई लेना-देना नही है. न ही मुझे कहीं जाने के लिए बाध्य किया गया है. पर मै अपने मित्र के साथ जा रहा हूँ, उन्हें हिम्मत बधाते हुए. अचानक उस टोली में मुझे भी मेरा एक पुराना परिचित दिखता है जो उन लोगों के साथ है. यह परिचित व्यक्ति बेहद दुष्ट है.  .....फिर मैंने देखा मेरे मित्र को एक आगे से खुले हुए कमरे में एक कुर्सी पर बिठा दिया गया है. मेरे मित्र शांत-गंभीर बैठे हुए हैं. उनकी मुद्रा से प्रतीत होता ही जैसे वे कहना चाह रहे हों कि-क्या डर; सांच को आंच नही. बारिश हो रही है. अब परिदृश्य में केवल तीन लोग हैं. मै बाहर भीग रहा हूँ. वह लंबा, कुर्ता वाला व्यक्ति एक छोटे से टेंट के नीचे बैठा है. मै सोच रहा हूँ कि उस व्यक्ति से पूछकर मै भी उस कमरे में बैठ जाऊं. पर वह मेरी उपेक्षा करता है.  मुझे एह

तितर-बितर मन : एक बड़बड़ाहट

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तितर-बितर मन : एक बड़बड़ाहट तितर-बितर मन भीतर कुनमुना रहा एक आलाप जो अनगढ़ सपनों से बन पड़ा है. गला सूख रहा; सारे आदर्श वाक्य निस्तेज से हैं. सब समझ लेता है मन, उधेड़बुन पर जाती नहीं. दरक रहे केंचुल संस्कारों के, रेंग रही देह शाश्वत पहनावे में से. ताना-बाना नया-नया गढ़ता मन, कुछ बासी से प्रश्न ढहा देते उन्हें हर बार. आदत, जान गए हैं कि नहीं निभाए जा रहे नियत व्यापार बोरियत खूब समझती है अपनी वज़ह. मन, जुआठे के साथ नहीं लगा, पर चल रहा लगातार अटपट. चिंतन अपने चरम पर पहुंचकर शून्यता का लुआठा दिखा देता है, तर्कों से घृणा हो रही-एक लंबी उबकाई सी. सोच में कोई नए जलजले नहीं; और शायद ऐसी कोई कालजयी जरूरत भी नहीं. विचलित-विलगित आगत से..आगम आहट का कल्पित सौंदर्य.. भी बासी लगेगा जैसे. 'सापेक्ष' शब्द ने 'सत्य की खोज' का आकर्षण ध्वस्त कर दिया है. नए मूल्यों की खोज जैसी कोई बात नहीं; सुविधानुसार नामकरण कुछ आदतों का.  बड़बड़ाना, एक जरूरत है, मुर्दे को ईर्ष्या है इस अदा से. सरकार, सर्कस की सीटी बजा रही, टिकट गिरे हैं जमीं पर. चंचल चित्त--ठीक है, हंसेगा नहीं चेहरा अब; आँखों का कोई भरोसा

“ सहज..2010..”

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“ सहज..2010..” नए साल पर लिखना चाहिए कुछ..इतना तो बनता ही है..यार..! 2009 जा चुका है. कहाँ कुछ चला जाता है.. ? कुछ नहीं जाता...सब कुछ यहीं रहता है..चेहरे पे , नसों मे , बहता रहता है...मेरी प्रतिक्रियाएँ बताती हैं मेरी हालत..। कुछ देखने-टोकने की आदत जाती नहीं..क्या करूँ.. ? गुजरा साल , हर साल की तरह कुछ और सीख दे गया. मसलन ; अपनी अभिनय-क्षमता निखारते रहो. लोगों को यथार्थ भी मिलावटी चाहिए. एक आदमी मे वाकई देखो कितने और भी आदमी झूलते रहते हैं..अपनी आँखों को दिल-दिमाग से सटाकर रखना दोस्त..गच्चा खा जाओगे..। ब्लागिरी मतलब..अपने ideas हाट पे लगाना..शायद. हम धीरे-धीरे नुमाइशी होते रहे..लोग nice-nice करते रहे.ब्लागिरी पे क्या कहना—कुछ जिंदा से लोग आपके पन्ने पलट सकते हैं...इतना कम है क्या.. ? इसमें इतना साहित्य-सेवा जितना कुछ नही है..ज्यादा सेंटी बनने की जरूरत नही है...! बिना दायित्व के भी लिखने दिया करो यार कहीं...! नए साल से उम्मीदें.........तो गुजरे साल से कम नही है पर depend करता है कि अपने-आप से कितनी उम्मीदें बची हुई हैं..। पापा की आवाज—अपने आप को सम्हाल लो , बहुत है..! वाह...कितन