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ओ नियतिवादी...!

कोशिश में जब तक रहती है, कशिश सपनों में तभी तक रहती है, तपिश भी. सोना जरूरी है जागने जितना ही, ताकि मिलता रहे खाद-पानी आगे और खटने को, जमकर जूझने को, और भर आँख देखने को फिर नए सपने. सदियों से खेले जा रहे हैं वही नाटक नाटक की कहानी जानता है कलाकार रटे हुए संवाद ही दुहराने होंगे फिर भी उसे लगाना होता है अपना सर्वस्व ताकि जीवंत लगे उसकी भूमिका. ओ नियतिवादी...! तुझे समझना होगा कि परिणाम का कोई अर्थ नहीं है, अर्थवत्ता है तो केवल भूमिका की; क्योंकि इस सनातन सतत नाटक में कसौटी पर, कहानी से ज्यादा भूमिका को जांचा जायेगा..! #श्रीश पाठक प्रखर