Posts

Showing posts from June, 2014

संभव है, ईश्वर....

Image
संभव है, ईश्वर तुम बैठे होओ किनारे पर. सम्हाल रहे हो मेरी डगमग नाव. जूझ रहे होओ साथ लहर-लहर  सूझ तो नहीं रहा मुझे यह अबूझ अम्बर. लहरों के अनगिन थपेड़े नाव के ही नही, हिला देते हैं पोर-पोर मन की शिराओं के भी. ज़रा भी कम नही है भीतर भी झंझावात तर्क-कुतर्क के बह रहे पुरजोर प्रपात. संभव है, ईश्वर तुम मेरे अविश्वास से चिंतित भी होओ विलगित गलित हुए हो मेरे नकार से. और दुखी भी होगे कि मै देखना ही क्यूँ चाहता हूँ तुम्हें महसूसता क्यूँ नहीं लहरों पर पतवार के हर वार में. संशय के तर्कों को कुचलते अदम्य जिजीविषा के तर्कों के अहर्निश स्रोत में. पर क्या करूँ मै किंचित इन लहरों, नाना उत्पातों से अधिक भयभीत हूँ अकेलेपन के एहसास से. मुझे जरूरत होती है तुम्हें छूने, सुनने और देखने की क्योंकि अनित्य संसार में शंका स्वाभाविक है और अभी मेरी द्वैत से अद्वैत की समझ यात्रा भी तो बाकी है.  #श्रीश पाठक प्रखर 

प्रेम नदी में शब्द की नौकाएं

Image
जन सन्देश टाइम्स  पढ़ लिए समस्त पृष्ठ। फिर परखा मैंने, कवि की एक कविता की पंक्ति से स्वयं को....! “पतझर में भी खिला करते हैं कई फूल क्यों इंतज़ार करे है बहार का मत ढूँढा कर शायरी में वजन पूछना है तो पता पूछ प्यार का” मैंने सोचा कि मै ही क्या खरा उतरा हूँ इस कसौटी पर। इन्हें पढ़ते हुए क्या तलाश कर रहा था मै....शब्द, शिल्प, विन्यास, भाव, अलंकार, व्याकरण या  प्यार........! चूंकि ये पंक्ति शुरू में ही आ जाती है तो बच जाता हूँ, कोई बचकानी हरकत नहीं करता मै और फिर बस प्यार, प्यार और बस प्यार ही निरखता जाता हूँ मै समस्त रचनाओं में। जी हाँ, समस्त कवितायें, उनके समस्त अंग-प्रत्यंग प्रियतम के प्यार में रची-सनी हैं। कभी प्रियतम की याद में पिघल रहीं हैं, कभी उनसे मिलते हुये उनकी तारीफ़ से घुल रही हैं और ज़्यादातर उनमें विलीन हो जा रही हैं। ऐसा कोई पृष्ठ नहीं जो सहज प्रेम की चाशनी में फूल ना गया हो। इन समस्त कविताओं में प्रेम, सृजित हुआ है, प्रेम ही युवा हो, दो ‘एक हो चुके’ को रिझा रहा है, प्रेम ही विकसित हो सब ओर छा रहा है और प्रेम ही जीवन धन्य करते हुए सबमें सबका हो जा रहा है। प्रेम प्रकीर्णन में कवित