प्रेम नदी में शब्द की नौकाएं

जन सन्देश टाइम्स पढ़ लिए समस्त पृष्ठ। फिर परखा मैंने, कवि की एक कविता की पंक्ति से स्वयं को....! “पतझर में भी खिला करते हैं कई फूल क्यों इंतज़ार करे है बहार का मत ढूँढा कर शायरी में वजन पूछना है तो पता पूछ प्यार का” मैंने सोचा कि मै ही क्या खरा उतरा हूँ इस कसौटी पर। इन्हें पढ़ते हुए क्या तलाश कर रहा था मै....शब्द, शिल्प, विन्यास, भाव, अलंकार, व्याकरण या प्यार........! चूंकि ये पंक्ति शुरू में ही आ जाती है तो बच जाता हूँ, कोई बचकानी हरकत नहीं करता मै और फिर बस प्यार, प्यार और बस प्यार ही निरखता जाता हूँ मै समस्त रचनाओं में। जी हाँ, समस्त कवितायें, उनके समस्त अंग-प्रत्यंग प्रियतम के प्यार में रची-सनी हैं। कभी प्रियतम की याद में पिघल रहीं हैं, कभी उनसे मिलते हुये उनकी तारीफ़ से घुल रही हैं और ज़्यादातर उनमें विलीन हो जा रही हैं। ऐसा कोई पृष्ठ नहीं जो सहज प्रेम की चाशनी में फूल ना गया हो। इन समस्त कविताओं में प्रेम, सृजित हुआ है, प्रेम ही युवा हो, दो ‘एक हो चुके’ को रिझा रहा है, प्रेम ही विकसित हो सब ओर छा रहा है और प्रेम ही जीवन धन्य करते हुए सबमें सबका हो जा रहा है। प्रेम प्रकीर्णन में कवित