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Showing posts from 2015

स्वतंत्रता व सुव्यवस्था के नोट्स : श्रीश

मन में कई विचार गोते लगा रहे हैं. पर सबसे पहले   श्याम जी   द्वारा लिखे गए वे शब्द और वाक्य जिन्हें मैंने अपनी डायरी में लिख लिए हैं... ये लाइनें शून्यकाल में मेरा बहुत साथ देंगी. और ये पंक्तियाँ सूत्रवाक्य हैं..कई कुंजियों का समवेत छल्ला है..उन्हें देखें: " जब चर्चा चल ही पड़ी है तो लगते हाथ बहुत पहले" सारिका" में पढ़ी धर्म की वह परिभाषा भी उद्दृत कर दूं जो पांच दशकों के बाद भी मुझे भूली नहीं .."अनासक्त विवेक से समष्टि कल्याण के हेतु किया जाने वाला कोई भी कर्म धर्म है." " यह मन कैसे बनता है ? निश्चित रूप से क्रिया प्रतिक्रिया ( stimulus and response cycle) चक्रों से मन निर्मित होता है." " वृत्त की आवृति =वृति" " उन्होनें आदतों के जमावड़े को कुण्डलिनी कहा है" " जितनी लघु , संकुचित और सीमित जीवन-दृष्टि ; उतनी ही तेज़ी से भागता है समय.. जीवन-दृष्टि जितनी व्यापक होती चली जाती है ; समय की गति भी उसी अनुपात में धीमी होती चली जाती है .. जब दृष्टि अस्तित्व की व्यापकता को पा लेती है..तब समय ठहर जाता है.. विलीन हो जाता है ..आदमी के गणि

साहित्य विभाजनकारी नहीं हो सकता, जब भी होगा जोड़ेगा.

साहित्य विभाजनकारी नहीं हो सकता , जब भी होगा जोड़ेगा.साहित्य शब्द कानों में पड़ते ही सहित वाला अर्थ दिमाग में आने लग जाता है. साहित्य में सहित का भाव है. कितना सटीक शब्द है. साहित्य शब्द में ही इसका उद्देश्य रोपित है. साहित्य विभाजनकारी नहीं हो सकता , जब भी होगा जोड़ेगा. इतना हर लिखने वाले को स्पष्ट होना चाहिए. इसीलिये जरुरी नहीं हर लेखन साहित्य में शामिल हो. मेरी दिक्कत ये है कि कुछ लोग साहित्य मतलब महज कविता कहानी समझते हैं. और इसे भी वो ' सब कुछ समझ सकने के गुरुर के साथ ' समझते हैं-मतलब ये कि उन्हें सही समझाना कठिन भी है. कविता मतलब भी वो कुछ यूँ समझते हैं कि एक लिखने की शैली जिसमें ख़ास रिदम और एक पैटर्न की पुनरावृत्ति होती है जिसकी विषयवस्तु अमूमन प्रकृति अथवा नारी की खूबसूरती होती है. कहानी मतलब भी कि एक नायक होगा..एक नायिका होगी. ज़माने से लड़ेंगे-भिड़ेंगे-फिर जीत ही जायेंगे.एक सीधी सी बात समझनी चाहिए कि किसी भी विषय-विशेष में उतनी ही गहराई और आयाम होते हैं जितनी कि ज़िंदगी की जटिलताएं गहरी होती हैं. इस तरह कोई भी विषय विशेष का महत्त्व किसी भी के सापेक्ष कमतर या अधिकतर नहीं होता

बुद्ध पूर्णिमा

'अपने लिए स्वयं दीप बन जाना'  और  परस्पर विरोधी राहों में से 'मध्यम मार्ग' का चयन ;  महात्मा बुद्ध की इस दो सीख ने अब तक मेरा बहुत ही मार्गदर्शन किया है l जातियों से इतर मानवता में विश्वास रखने वाले और करुणा भाव से ओत-प्रोत इस महाभाव को उनके बुद्धत्व दिवस एवं निर्वाण दिवस पर स्मरण करना प्रासंगिक है और सर्वदा रहेगा l #ShreeshUvach

Grateful to Birthday Wishes :)

आह्लादित मन बहुधा कुछ विशेष प्रतिक्रिया नहीं कर पाता l इस वर्ष, वर्षगाँठ पे आप सभी का असीमित प्यार-दुलार मिला l नसीहतें भी मिलीं, कुछ ने झिझोड़ा भी-हो कहाँ तुम? याद सभी आते हैं और जानता हूँ याद सभी करते हैं l जीवन में बस इतना ही समेटा भी जा सकता है...हासिल इतना ही है ज़िंदगी का...सो खुश हूँ..और हमेशा की तरह तैयार भी l जन्मदिन हर वर्ष अपने समय पर दुन्दुभि बजाते आते हैं कि तैयार हो जाओ कुछ और नए उमंगों के लिए l मन पे गुजरा हर साल यों तो चिपका ही होता है, फिर भी नए मौके अतीत को एक तरफ रख भविष्य की हिलोर को थामने के लिए वर्तमान को तैयार कर ही देते हैं l एक बार फिर आप सबका शुक्रिया..! थैंक्स फेसबुक ... smile emoticon

आपकी अमोल शुभकामनाओं के लिए ह्रदय से आभारी हूँ.

आपकी अमोल शुभकामनाओं के लिए ह्रदय से आभारी हूँ. ये ज्ञात-अज्ञात दुआएं ही हैं जिनकी बदौलत ये यज्ञ पूरा हुआ l अभी भी विश्वास नहीं होता कि पूरी हो गयी पी.एच. डी. l पिछले कई सालों से ये मेरे अस्तित्व के साथ यूँ चिपक गयी थी कि यही मेरी सीमा और यही मेरा विस्तार हो गयी थी. कुछ रास्ते, कुछ लोगों के लिए आसान और कुछ लोगों के लिए बहुत ही कठिन हो जाते हैं; इसमें काबलियत बस एक पहलू है l मेरे लिए यह रास्ता बहुत ही कठिन हो गया था l सैकड़ों बार सोचा कि इस रास्ते की मंजिल का मुंह मै नहीं देख सकूँगा l शुभेक्षाएं एवं दुआओं ने ही मुझे उबार लिया l और सच में रास्ते के इस किनारे आकर मै वही नहीं रह गया हूँ, जो रास्ते के उस छोर पर था l सीखा तो बहुत कुछ l पर शायद सबसे बड़ी सीख जो सीखी वो है-धैर्य l स्वयं पे विश्वास रखते हुए धैर्य का दामन पकडे हुए चलते जाना ...बस चलते जाना.......,....! और जब भी जितना भी मौक़ा मिल जाये ..खिलखिलाते रहना-हँसते और हंसाते रहना.... smile emoticon शुक्रिया   ‪#‎ JNU‬   l डेमोक्रेटिक स्पेस की रट लगाना और डेमोक्रेटिक स्पेस उपलब्ध करवाने में बहुत अंतर है l   यहाँ हर तरह के लोगों का स्वागत है

आप से नाउम्मीद नहीं

आने वाले सालों में उपलब्धियां 'आप' के पास भी होंगी गिनाने को. मोल-तोल की मीडिया 'आप' के नाम का भी ढोल बजाएगी ही. बाकियों से बेहतर तो 'आप' यूँ भी करोगे क्यूंकि अभी 'आप' के पास किसी का कुछ बकाया नहीं होगा. आइये स्वागत है भारतीय राजनीति के महासागर में....मुबारक हो कि 'आप' ने देर-सबेर वही स्विम-सूट पहन लिया. उम्मीद अभी भी 'आप' से ही है, क्यूंकि अभागे ग्राहक के पास गिनी-चुनी वही दुकानें हैं और 'आप' के यहाँ फिर भी थोड़ी राहत है. 'आप' निश्चिन्त रहें, इतिहास में 'आप' दर्ज तो हो ही गए हैं....बस सोच इतना ही रहा हूँ कि 'भारतीय राजनीति को नीति की राजनीति' के लिए अभी और, आह अभी और .....प्रतीक्षा करनी होगी....! नाउम्मीद नहीं हूँ मै ! ‪#‎ श्रीशउवाच‬

जब भी मै कुछ गंभीर लिखता हूँ, मै स्पष्ट होता हूँ कि...

जब भी मै कुछ गंभीर लिखता हूँ, मै स्पष्ट होता हूँ कि 'मुझे भविष्य में कैसा समाज चाहिए?' भयाक्रांत, असुरक्षित, असंगठित, विभाजित, संकीर्ण अथवा समरस, संगठित, समन्वित, सतत, विकासोन्मुख ....! ऐसा सोचते ही मेरी भाषा संयत हो जाती है. मै सहनशील एवं साहसी हो जाता हूँ. मै आलोचना का स्वागत करने लग जाता हूँ, क्योंकि यह वो आयाम होती है, जो मुझसे संभवतः छूट जाती है. यह सोच मुझे आज की विभिन्न और बिखरी हुई कई समस्यायों के त्वरित हल से बचाती है, मध्य मार्ग की ओर ले जाती है, उनके एक सूत्रता  को पकड़ पाती है. मुझे भारत के भविष्य में विश्वास है, इसलिए मै कोशिश करता हूँ कि मेरे अध्ययन एवं ऑब्जरवेशन का कम से कम दो या अधिक स्रोत अवश्य हो. अतीत से सीख लेता हूँ, विभेद और वैमनस्य छांटकर वहीँ छोड़ देता हूँ. मै चुनता हूँ, थोड़ी सी बुरी यादों के मुकाबले थोड़ी सी अच्छी यादों को..! आँख-कान खुली रखता हूँ, क्योंकि भ्रमित कोई भी हो सकता है जिसने किसी एक विश्वास को ही अपना सर्वस्व बना लिया हो . जानता हूँ, इसलिए चौकन्ना रहता हूँ कि जहाँ मै खड़ा हूँ, वहां के अपने बायसेस हो सकते हैं, दूसरों के भी हो सकते हैं...अपने बायसे

अपेक्षाओं की संकीर्णता

नेता, नायक, महापुरुष, समाज-सेवक, कलाकार, सरकरी सेवक, पत्रकार, अध्यापक, अधिवक्ता, चिकित्सक, अभियंता, कवि-लेखक आदि-आदि ......,...! ये सब अलग अलग लोग हैं. इन्हें अलग-अलग ही देखना होगा...! इनमे से जो भी प्रसिद्ध हो जाता है....उनमें हम सभी के गुणों की अपेक्षा करने लग जाते हैं. अपेक्षाओं की विडंबना देखिये, हम चाहते हैं, खिलाड़ी सचिन हर स्तर पर समाज के लिए 'सचिन' बन जाएँ. हम चाहते हैं कलाकार अमिताभ, हर स्तर पर समाज के लिए 'अमिताभ' बन जाएँ. बन जाएँ तो ठीक है, ना बन सकें तो क्या हम  हिसाब लेंगे...क्योंकि वे 'प्रसिद्द' हैं..? प्रसिद्धि अर्जित गुण है...इससे अपेक्षा हो सकती है किन्तु बाध्यता नहीं. जरुरी नहीं कि प्रत्येक प्रसिद्द 'नेता', 'नायक' बन फिर 'महापुरुष' भी बन जाए...!   कुछ लोग ही समन्वित अपेक्षा पर खरे उतरते हैं, अधिकांश जो नहीं पार उतर पाते अपेक्षाओं के पहाड़ से उनका मूल योगदान भी भुलाया जाने लगता है. हर क्षेत्र के रोल मॉडल अलग अलग लोग होते हैं/होने चाहिए. कोई एक ही रोल मॉडल हर क्षेत्र में हम अपेक्षा करेंगे तो उस रोल मॉडल को बेजान मूर्ति बनते

परिवर्तन और विरोधाभास

......सतत दबावों में तोष के लिए सहज ही जो समानांतर मै रच लेता हूँ मानस में...कहीं...., तू उससे ही तो नहीं ना रच लेता है 'भविष्य' ...बता ? ...और तो मुझे लगता है जैसे-परिवर्तन और विरोधाभास बस दो ही धर्म हैं जीवन के ..! ‪#‎ श्रीशउवाच‬
Be stereotype..! They like you; so they would accept you. Refuse to be typecast..! Only those who love you; could accept. People challenge even the danger of challenge. In this way, status quoists are more dynamic. आप उन्हीं लकीरों पर चलो. लोग जो पसंद करते हैं, जरुर स्वीकार कर लेंगे आपको. संभवतः कुछ आपको आदर्श भी मानने लगें. उन लकीरों को अस्वीकार कर चलिए, लोग जो आपसे प्रेम करते हैं, शायद वही आपको स्वीकार कर सकें. लोग 'चुनौतियों के खतरे तक ' को चुनौती देते हैं, इन अर्थों में यथास्थितिवादी कहीं अधिक प्रयत्नशील हैं, चूँकि उन्हें सतत विरोध करना है. (कल 'रंगरसिया' फिल्म देखने के बाद ...सोचने लगा. ) ‪#‎ श्रीशउवाच‬

भगत सिंह-सुखदेव-राजगुरु की शहादत

देश के लिए किया गया कोई भी योगदान छोटा या बड़ा नहीं होता, वह महनीय ही होता है। शहादतों की तूलना करना किसी भी शहादत का अपमान ही करना है। भगत सिंह-सुखदेव-राजगुरु की शहादत इसलिए बड़ी नहीं है कि किसी और महापुरुष की शहादत छोटी है, बल्कि वह शहादत बड़ी है ही क्योंकि वो प्यारे भारत के लिए की गई थी। मेरी विनम्र श्रद्धांजली...!!!

भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी

साल 1996....!!! अखबार का पहला पन्ना थोड़ा-थोड़ा समझ आने लगा था। 'राव बनाएं, फिर सरकार' के पोस्टरों को फाड़ सहसा एक लोकप्रिय नेता भारत का प्रधानमंत्री बनने जा रहा था। उस जमाने में हम सभी उनकी तरह बोलने की नकल करते थे। शब्दों के बीच का अंतराल चमत्कार पैदा करता था, क्योंकि सहसा वे कुछ ऐसा कह जाते थे, जिसकी मिठास घंटो घुली होती मन में...! हिन्दी भाषा कितनी गरिमामयी हो सकती है...ये हम महसूस कर रहे थे...आज भी कह सकता हूं, मातृभाषा में जो बात है वो आंग्लभाषा में कहां...? श्री अटल बिहारी वाजपेयी....! मेरे होश में तो यदि राष्ट्रपति के तौर पर कलाम साहब ज़ेहन में छाए रहेंगे हमेशा तो प्रधानमंत्री के तौर पर अटल जी की जगह कोई नहीं ले सकेगा। प्रधानमंत्री जो कवि-हृदय हो, सक्रिय और जमीनी राजनीति का लंबा अनुभव लिए हो, समर्पित हो और बेदाग भी हो, स्पष्टवादी भी हो और मृदुभाषी भी हो...! विदेश नीति पर जिसकी व्यक्तिगत छाप हो...., सिद्धान्तवादी भी हो और समन्वयवादी भी हो....और दूजा कौन - भारत रत्न श्री अटल बिहारी वाजपेयी...!!! भारत रत्न जब वाकई भारत के रत्न को मिलता है तो खुशी भी मुकम्मल होती है। "मेरे

In dealing with Pakistan...

In dealing with Pakistan, major obstacle is that to whom you should deal. In Pakistan, there are several power centres but none is accountable. Achchhe din vali Government must deal with those International actors on which Pakistan is fairly dependent. As a country, until we don't have capacity to bargain and negotiate with those actors, we cannot ever come in a position to resolve problems regarding Pakistan.  Diplomatic-economic inability of New Delhi is taking continuously precious lives of our beloved and great soldiers on borders. Our borders are compromised just because; Delhi often merely believes in rhetoric and slogans rather than concrete actions.  ‪#‎ श्रीशउवाच‬

माना, बचपन इतना भी बेख़ौफ़ ना होता हो सबका

माना, बचपन इतना भी बेख़ौफ़ ना होता हो सबका, पर जैसी भी जिन्दगी है किसी की, बचपन का अल्हड़पन याद जरुर आता होगा. तेरा-मेरा था, तरोड़-मरोड़ ना था, नीच-ऊंच था भी तो उसका महत्त्व कुछ ना था. जानते कुछ ना थे, जानना सब चाहते थे. प्यार जितना भी नसीब था, हिसाब नहीं था. खेल खेल में मेल और मेल मेल में रेलम रेल हो जाती थी...हंसी-खुशी की फुलझड़ियाँ सबके पास होती थीं. बचपन में हम बड़े बनना चाहते थे, बड़े बनकर हम बड़े जानते हैं कि हम कितने लम्बे, महीन और कमजोर हो गए. बेजान कागज के नोट की अहमियत , जान दार तितलियों से अधिक हम समझदार आंकने लगे...! पता नहीं हम बड़े हुए या छोटे हुए....पता नहीं. ‪#‎ श्रीशउवाच‬

Caste politics is costly, but who cares?

Caste politics is costly, but who cares? इसे बचाए सभी रखना चाहते हैं...बस तर्क अलग हैं. caste के बचने से किसी का धर्म बच जाता है, किसी के संस्कार सुरक्षित रहते हैं, किसी के पुरखे स्वर्ग में चैन से रहते हैं, किसी का रक्त शुद्ध बना रहता है, किसी का बदला पूरा होने लग जाता है..किसी की नौकरी लग जाती है...किसी नकारे की शादी हो जाती है. किसी का नकारा, नेता बन जाता है,किसी की वकालत चल जाती है, किसी की दूकान चल निकलती है. किसी को ठेका मिल जाता है, कोई ठेके पे भर्ती करवाने लग जाता है.   जब इतने फायदे हैं इसके तो जमाये रखते हैं जाति को. ‪#‎ श्रीशउवाच‬