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Showing posts from December, 2016

त्योहारों के रेलें, मेले और भारत

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डॉ. श्रीश पाठक भारत में भानमती के कुनबे बहुत है । ये इसकी खूबसूरती है, पहचान भी और है इसकी मजबूती भी । अपने देश में जाने कितने देश बसते हैं । तरह-तरह के लोग, तरह-तरह की आदतें, रस्में तरह-तरह की और तहजीबें तरह-तरह की । तरह-तरह के पकवान, तरह-तरह के परिधान, तरह-तरह की बोलियाँ और तरह-तरह के त्यौहार । हाँ, त्यौहार...! अपना देश तो त्योहारों का देश है और भारत देश है मेलों का भी । हमारे यहाँ मंडी तो नहीं पर मेलों की रिवायत रही है । कोस-कोस पे पानी का स्वाद बदलता है और तीन-चार कोस पे बोली बदल जाती है और तकरीबन हर पंद्रह-बीस कोस बाद भारत में कोई न कोई मेले का रिवाज मिल जायेगा । प्रसिद्द मेलों की बड़ी लम्बी फेहरिश्त है और कमोबेश पूरे भारत में है यह । मेले जो कभी हर महीने लगते हैं, कुछ बड़े मौसम-परिवर्तन पर लगते हैं और कुछ साल के अंतराल पर लगते हैं । इन सतरंगी मेलों में भांति-भांति के लोग एक-दूसरे से मिलते हैं, एक-दूसरे की खासियतें समझते हैं, जरूरतें साझा करते हैं, रिश्ते बनते हैं, नाटक, खेल देखते हैं, इसप्रकार मेले दरअसल स्थानीयता का उत्सव होते हैं । त्योहारों का भी मूलभूत दर्शन उत्सव ही है । कभी प

राजनीति एक शास्त्र भी है....!

"......s s ....! मिल नहीं पायी इन्क्रीमेंट, बहुत पॉलिटिक्स है..!" "सिलेंडर नहीं मिल पाया आज भी, बड़ी राजनीति है, भाई !" "पॉलिटिक्स पढ़ते हो, इसमें तुम्हारी ही कोई राजनीति होगी.....!" ये जुमले खूब सुने होंगे, आपने l और यह भी सुने होंगे- "तुम ज्यादा मत उड़ो, अच्छे से समझते हैं तुम्हारी साइकोलॉजी ......! " "अपनी इकोनॉमिक्स खंगाल लो, आर्डर देने से पहले....! " " जियोग्राफी देखी है अपनी, जो मॉडलिंग करने चले हो...! " और ये भी सुना होगा आपने कभी कभी - "तेरी पर्सनालिटी की फिजिक्स समझता हूँ, शांत ही रहो..! " "तेरी उसकी केमिस्ट्री के चर्चे हैं बड़े.....! " "तेरा मैथ कमजोर है पर गणित बहुत तेज है, शातिर कहीं का ....!" हम सामान्य व्यवहार में शब्दों का बड़ा ही अनुशासनहीन प्रयोग करते हैं l इसमें इतना भी कुछ गलत नहीं l एक सीमा तक इससे भाषा को प्रवाह मिलता है, नए प्रयोग उसे लोकप्रिय और समृद्ध बनाते हैं l किन्तु शब्दों का चयन वक्ता के परसेप्शन को जरुर ही स्पष्ट करता है l ऊपर लिखे वाक्य यह अवश्य बताते हैं कि वक्त

वो भूंकते कुत्ते...

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कड़क सी सर्दी, रजाई में उनींदे से लोग सपनों की खुमारी में आँखें लबालब जब जो जैसा चाहते बुनते रचते, समानांतर सपनों की दुनिया, पर बार-बार टूट जाते वे सपने। खुल जाती डोरी नींद की कच्ची, बरबस मुनमुनाते गाली उन आवारा कुत्तों पर, जो भौंक पड़ते गाहे-बगाहे। (Google Image) क्यों नहीं सो जाते कहीं ये कुत्ते भी मजे लेते मांस के सपनों की, या फिर खेलते खेल ,खो सुधबुध    गरमाहट छानते पीढ़ी-दर-पीढ़ी। कुछ लोग होते ही हैं, तनी भवें वाले होती है उन्हें चौंकने की आदत गुर्राते हैं सवाल लेकर, मिले ना मिले जवाब दौड़ते हैं, भूंकते हैं, पीछा करते हैं, लिखते हैं...! जिन्दगी की रेशमी चिकनाइयों से परहेज नहीं पर बिछना नहीं आता, कमबख्तों को। चैन नहीं आता उन्हें, पेट भरे हों या हो गुड़गुड़ी। शायद शगल हो पॉलिटिक्स का, सूंघते हैं पॉलिटिक्स हर जगह, करते हैं पॉलिटिक्स वे  शक करते रहते हैं, हक की बात करते रहते हैं। लूजर्स, एक दिन कुत्ते की मौत मर जाते हैं.... ये, ऐसे क्यों होते हैं....? चीयर्स....! देश आगे बढ़ तो रहा है। ये नहीं बदलना चाहते, भुक्खड़। मेमसाहब का कुत्ता कितना समझदार है, स्पोर्टी...! हौले से गोद में बैठ कुनमुनाता