त्योहारों के रेलें, मेले और भारत
डॉ. श्रीश पाठक भारत में भानमती के कुनबे बहुत है । ये इसकी खूबसूरती है, पहचान भी और है इसकी मजबूती भी । अपने देश में जाने कितने देश बसते हैं । तरह-तरह के लोग, तरह-तरह की आदतें, रस्में तरह-तरह की और तहजीबें तरह-तरह की । तरह-तरह के पकवान, तरह-तरह के परिधान, तरह-तरह की बोलियाँ और तरह-तरह के त्यौहार । हाँ, त्यौहार...! अपना देश तो त्योहारों का देश है और भारत देश है मेलों का भी । हमारे यहाँ मंडी तो नहीं पर मेलों की रिवायत रही है । कोस-कोस पे पानी का स्वाद बदलता है और तीन-चार कोस पे बोली बदल जाती है और तकरीबन हर पंद्रह-बीस कोस बाद भारत में कोई न कोई मेले का रिवाज मिल जायेगा । प्रसिद्द मेलों की बड़ी लम्बी फेहरिश्त है और कमोबेश पूरे भारत में है यह । मेले जो कभी हर महीने लगते हैं, कुछ बड़े मौसम-परिवर्तन पर लगते हैं और कुछ साल के अंतराल पर लगते हैं । इन सतरंगी मेलों में भांति-भांति के लोग एक-दूसरे से मिलते हैं, एक-दूसरे की खासियतें समझते हैं, जरूरतें साझा करते हैं, रिश्ते बनते हैं, नाटक, खेल देखते हैं, इसप्रकार मेले दरअसल स्थानीयता का उत्सव होते हैं । त्योहारों का भी मूलभूत दर्शन उत्सव ही है । कभी प