JNU विवाद पर मेरी टिप्पणी.

सच एक नहीं होता, एक वह हो ही नहीं सकता क्यूंकि सब एक साथ एक जगह खड़े नहीं होते l सबका अपना अपना सच हो सकता है, किसी का सच छोटा या बड़ा नहीं हो सकता l एक समय में किसी विषय पर सूचनाओं की उपस्थिति सम्पूर्ण नहीं हो सकती, इसलिए सच, समय समय का भी हो सकता है l कोई निष्कर्ष अंतिम नहीं हो सकता l कोई अर्थ, कोई परिभाषा अंतिम नहीं हो सकती l अभिव्यक्ति के सभी साधनों की सीमायें हैं l प्रायःयह मान लिया जाता है कि इन सीमाओं का बोध उन्हें अवश्य ही होगा जो इन साधनों के उपभोक्ता हैं, प्रयोक्ता हैं एवं नियोक्ता हैं l यकीनन किसी तथ्य के कई पहलू होते हैं l तथ्यों का अधिकाधिक संभव बोध प्रकाश हो, इसलिए परिप्रेक्ष्यों, अवधारणाओं, व्याख्याओं, दृष्टिकोणों एवं अलग अलग स्रोतों की सूचनाओं का आह्वाहन व समावेशन किया जाता है l अभिव्यक्ति की चुनौतियाँ भी गंभीर हैं l मान लिया जाता है कि इसका बोध भी उन्हें है जो अभिव्यक्ति के साधनों के उपभोक्ता हैं, प्रयोक्ता हैं एवं नियोक्ता हैं l शब्दों के सबके अपने अपने संस्कार हैं l प्रति एक शब्दों के साथ प्रत्येक व्यक्ति के अपने अपने बिम्ब हैं l वक्ता के शब्द संस्कार और श्रोता