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Showing posts from November, 2017

यूँ ही नहीं पनपती संविधानवाद की परंपराएँ

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डॉ . श्रीश पाठक* न्यूजकैप्चर्ड   आज   आ धुनिक समय में लोकतंत्र महज एक राजनीतिक व्यवस्था से कहीं अधिक एक राजनीतिक मूल्य बन चुका है जिसे इस विश्वव्यवस्था का प्रत्येक राष्ट्र अपने संविधान की विशेषता बताना चाहता है, भले ही वहाँ लोकतांत्रिक लोकाचारों का नितांत अभाव हो. संविधान किसी देश के शासन-प्रशासन के   मूलभूत सिद्धांतों और संरचनाओं का दस्तावेज होते हैं, जिनसे उस देश की राजनीतिक व्यवस्था संचालित-निर्देशित होती है. जरूरी नहीं कि कोई लिखित प्रारूप हो, कई बार उस देश की दैनंदिन जीवन की सहज परंपरा और अभिसमय ही इतने पर्याप्त होते हैं कि उनसे उस देश की राजनीतिक व्यवस्था पुष्पित पल्लवित रहती है, जैसे ब्रिटेन. संविधान की भौतिक उपस्थिति से अधिक निर्णायक है किसी राष्ट्र में संविधानवाद की उपस्थिति. यदि किसी देश में संचालित राजनीतिक संस्थाएँ अपनी अपनी मर्यादाएँ समझते हुए कार्यरत हों तो समझा जाएगा कि संविधान की भौतिक अनुपस्थिति में भी निश्चित ही वहाँ एक सशक्त संविधानवाद है. पाकिस्तान जैसे देशों में संविधान की भौतिक उपस्थिति तो है किन्तु संविधानवाद की अनुपस्थिति है.    संविधानवाद की परंपराएँ पनपने में

भारतीय राष्ट्रवाद की विशिष्टता

डॉ . श्रीश पाठक पंजाब केसरी   दो - दो विश्वयुद्धों की विभीषिका के काफी पहले सत्रहवीं शताब्दी में यूरोप ने लगातार चलने वाले तीस वर्ष के युद्ध से जूझता रहा।  जर्मनी के वेस्टफेलिया क्षेत्र में आखिरकार एक शांति - संधि की गयी , जिसमें सभी पक्षों ने एक दूसरे की सीमाओं का आदर करने और आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का संकल्प लिया। अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की विश्व राजनीति इस क्षण से हमेशा के लिए बदल गयी। किसी राष्ट्र - राज्य के संप्रभु होने की अवधारणा का भी विकास हुआ और साथ ही ज्यों ज्यों यूरोप में साम्राज्यवाद के फलस्वरूप सम्पन्नता आती गयी अपने ही क्षेत्रीय - सांस्कृतिक पहचान को राष्ट्रीय पहचान में तब्दील कर उसे महानता का स्तर देकर राष्ट्रवाद की संकल्पना उपजती गयी। इस उत्कट राष्ट्रवाद ने यूरोप को प्रगति तो दी पर आगे चलकर विश्वयुद्धों का अविस्मरणीय दंश भी दिया।  उपनिवेशवाद के जवाब के फलस्वरूप उत्तर - औपनिवेशिक प्रयासों के तहत भारत जैसे राष्ट्रों ने भी राष्ट्रवाद की संकल्पना को अपनाकर सम्पूर्ण देश की विविधता के विखंडन को रोकने की कोशिश की। स्पेन के कैटेलोनिया सहित यूरोप में दो दर्जन से अधिक छ

चुनाव सुधार और नेपाल चुनाव

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डॉ. श्रीश पाठक नेपाल ने पिछले सात दशकों में सात संविधान देखे हैं। देश के पिछले तीन दशक बेहद त्रासद राजनीतिक अस्थिरता के रहे हैं, जिसमें तकरीबन दस साल भयंकर हिंसाके हैं। नेपाल में १९९० में बहुदलीय लोकतंत्रीय संसदीय व्यवस्था को अपनाया तो गया पर पिछले सत्ताईस सालों में देश में पच्चीस सरकारें आईं और एकबार बलात राजकीय सत्ता परिवर्तन भी हुआ। १९९९ में पिछली बार चुनाव संपन्न हुआ पर दो साल के भीतर ही २००१ में आपातकाल लागू कर दिया गया। २००५-०६ में भारत सरकार के प्रयासों से माओवादियों को राजनीतिक मुख्यधारा में शामिल किया गया और नए गणतांत्रिक नेपाल के नए संविधान के गठन के लिए २००८ में प्रथम संवैधानिक सभा बनाई गयी। विभिन्न अस्मिताओं वाले नागरिकों के सम्यक प्रतिनिधित्वके मुद्दे पर खींचातानी चलती रही और २०१३ में द्वितीय संवैधानिक सभा का गठन किया गया। ये संविधान सभाएँ संविधान-निर्माण के लिए सहमति जोहती रहीं और साथ-साथ शासन-प्रशासन भी किसी प्रकार चलाती रहीं। अप्रैल, २०१५ में जहाँ नेपाल ने भूकंप की भयानक विभीषिका झेली, वहीं देश को सितम्बर, २०१५ में नया संविधान मिला जिसके अनुसार नेपाल एक गणतांत्रिक लोकतं

आखिर एशिया में हुआ क्या है...!

लल्लनटॉप पर  दुनिया में सबसे जियादा लोग यहीं बसते हैं। बाकी सभी महाद्वीपों के सभी लोगों को जोड़ भी लें तो कम है। दुनिया कारोबारी हो गयी है और एशिया उन्हें बाजार दिखता है। अमीर देशों के कारोबारी और ज़ियादा मुनाफे की हवस में एशिया आते हैं ताकि उन्हें सस्ते में स्किल वाले मजदूर मिलें। इस चक्कर में विकसित देशों ने एशिया में पैसा लगाया , फैक्टरियाँ लगाईं और जिन एशियाई देशों ने वक्त की नब्ज पकड़ी उन्होंने और इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास करके इस मौके का फायदा उठाया। एशिया में पुराने बाबा तो हैं ही , यूरोप से सटा रूस है , मालदार जापान है और अब उभरता भारत है और चकल्लस चीन है। विश्व - राजनीति में शक्ति वही नहीं होती जो हथियार और सेना से उपजती है , जोसेफ नाई के अनुसार हार्ड पावर के साथ सॉफ्ट पावर भी होता है जो कल्चरल चीजों से हर जगह , जगह बना लेता है। डांस , गाना , त्यौहार , खाना , भेष , साहित्य , फिल्म , आदि से पकड़ और मजबूत हो जाती है , इसके साथ ही अगर सेना भी मजबूत हो , हथियार नए - नवेले हों तो फिर तो धाक जम ही जाती है। सिंगापूर , मलेशिया , इंडोनेशिया , फिलीपींस , थाईलैंड जैसे देशों ने ग्लोबलाईजेशन का

हेग विजय और संयुक्त राष्ट्र संघ सुधार

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डॉ.श्रीश पाठक भारत की ब्रिटेन से आजादी के ही साल जन्मे जस्टिस दलवीर भंडारी इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस (आईसीजे ), हेग की पंद्रह सदस्यीय पैनल में लगातार दुसरी बार अगले नौ साल के लिए चुन गए जब उनके खिलाफ रहे ब्रिटेन के क्रिस्टोफ़र ग्रीनवुड ने आखिरी समय में अपनी दावेदारी वापस ले ली। सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीश रहे दलवीर भंडारी जोधपुर के हैं और उनका परिवार विधिज्ञों की विरासत वाला है। दलवीर भंडारी से आठ साल छोटे क्रिस्टोफर ग्रीनवुड भी आईसीजे में अपना नौ साल का समय पूरा कर लेने के बाद अगले नौ साल की नियुक्ति के लिए ब्रिटेन की तरफ से मैदान में थे। सर क्रिस्टोफर जॉन ग्रीनवुड लन्दन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में विधि के प्रोफ़ेसर हैं और इनकी आलोचना इनके उन विधिक तर्कों के लिए पुरे विश्व में की जाती है जिसके सहारे ब्रिटेन ने  २००२ में इराक पर अपने सैनिक बल प्रयोग को उचित ठहराया गया था। ब्रिटेन ने यह कहते हुए अपनी दावेदारी वापस ले ली कि जबकि उनका देश यह चुनाव नहीं जीत सकता, उन्हें खुशी है कि उनके नज़दीकी मित्र भारत ने यह दावेदारी जीत ली है और वे संयुक्त राष्ट्र और वैश्विक पटल पर भारत का सहयोग करते रहेंगे।