यूँ ही नहीं पनपती संविधानवाद की परंपराएँ

डॉ . श्रीश पाठक* न्यूजकैप्चर्ड आज आ धुनिक समय में लोकतंत्र महज एक राजनीतिक व्यवस्था से कहीं अधिक एक राजनीतिक मूल्य बन चुका है जिसे इस विश्वव्यवस्था का प्रत्येक राष्ट्र अपने संविधान की विशेषता बताना चाहता है, भले ही वहाँ लोकतांत्रिक लोकाचारों का नितांत अभाव हो. संविधान किसी देश के शासन-प्रशासन के मूलभूत सिद्धांतों और संरचनाओं का दस्तावेज होते हैं, जिनसे उस देश की राजनीतिक व्यवस्था संचालित-निर्देशित होती है. जरूरी नहीं कि कोई लिखित प्रारूप हो, कई बार उस देश की दैनंदिन जीवन की सहज परंपरा और अभिसमय ही इतने पर्याप्त होते हैं कि उनसे उस देश की राजनीतिक व्यवस्था पुष्पित पल्लवित रहती है, जैसे ब्रिटेन. संविधान की भौतिक उपस्थिति से अधिक निर्णायक है किसी राष्ट्र में संविधानवाद की उपस्थिति. यदि किसी देश में संचालित राजनीतिक संस्थाएँ अपनी अपनी मर्यादाएँ समझते हुए कार्यरत हों तो समझा जाएगा कि संविधान की भौतिक अनुपस्थिति में भी निश्चित ही वहाँ एक सशक्त संविधानवाद है. पाकिस्तान जैसे देशों में संविधान की भौतिक उपस्थिति तो है किन्तु संविधानवाद की अनुपस्थिति है. संविधानवाद की परंपराएँ पनपने में