सुनो बे दो हजार अट्ठारह

सुनो भई दो हजार अट्ठारह, देखो, आराम से आना! लगे कि कुछ नया आ रहा है. फिर वही अखबार मत लाना जिसे ले जाएगा कबाड़ी वाला. लोग तो हैं ही सट्टेबाज, सत्ता की मलाई के लिए खांचा खीचने के लिए तैयार बैठे हैं. फेस्टिवल वाले देश में फेस्टिवल का धरम बताएंगे, किसी किसी दिन की जाति बतावेंगे और बंसी बजैइया के देश में बेशर्म इज्ज़त के नाम पे उसी पेड़ पे लटकावेंगे जहाँ उ चोर कपड़े लेके बैठे रहा! सुनो, इस बार मुहल्ले में भी आना चमकदार टीवी से उतरकर. देखों यों आना कि नालियाँ साफ हो जाएं, अस्पताल में दवाई मिले और पाठशाला में मिलें गुरुजी. मौका लगे तो छह लाख गावों में शैम्पू की छोटी छोटी सैशे में समाकर आना, पर आना. पता करना कि किसी गांव में सचमुच बिजली रहती कितनी देर तक है. देखना, कि नहर में पूआल रखी है या पानी भी आता है. किसी से चुपके से पूछना कि पिछले चुनाव में जो मर्डर हुआ, उसमें कुछ हुआ या फिर सब विकास ही है. अच्छा रुको रे दो हजार अट्ठारह! जरा विकास को पुचकार देना, बेचारा रूखा सूखा हुआ है. सब उसे हर सीजन में नए कपड़े पहनाकर घुमाते हैं सर पे, पर बेचारा दशकों से भूखा है. सड़क की पटरियों पे इधर उधर पोस्टर ब