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Showing posts from 2018

भारत-पाकिस्तान का करतारपुर कनेक्शन

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लोकतंत्र की विडंबना यह है कि सत्ता की निरंतरता की चाह दलों को अपनी सरकार बनाने और बचाने के लिए अंततः सबकुछ दाँव पर लगाने को उद्यत कर देती है और दल सत्ता के लिए ऐसा करने भी लग जाते हैं। दल, सत्ता के अपने पाँच सालों में लगभग हमेशा ही कुछ यों अपनी गतिविधियाँ रखते हैं कि उन्हें चुनाव में इसका फायदा अवश्य मिले। भारत-पाकिस्तान संबंध भी सीमा के दोनों ओर की सरकारों की इस मानसिकता से लगातार प्रभावित होता रहा है। पंजाब, जो कि सीमा के दोनों ओर फैला है और दोनों ही देशों का महत्वपूर्ण राज्य है, संबंधों की इस अनिश्चितता से सर्वाधिक प्रभावित होने वाला नागरिक-समुदाय है। खालिस्तान-संघर्ष का भयावह अध्याय इसमें सुरक्षा व आतंकवाद के महत्वपूर्ण तत्व भी जोड़ता है, जिससे सरकारें और भी एहतियात बरतती हैं और संबंधों में एकप्रकार की ठंडी जड़ता पसरी रहती है। इन ठिठके रिश्तों में सहसा एक हलचल हुई जब भारतीय पंजाब के राज्य सरकार के एक मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू अपने क्रिकेटर मित्र इमरान खान के शपथ ग्रहण समारोह में हिस्सा लेने पाकिस्तान पहुँचे और मंच पर पाकिस्तान के सेना प्रमुख कमर जावेद बाजवा से गले लग गए। यह तस्वीर और

Live Participation: Constitution Day of India

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राजनीतिक संकट के पूर्णकोणीय पटाक्षेप पर मालदीव

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प्रभात खबर  भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उपस्थिति में मोहम्मद सोलिह के राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के साथ ही मालदीव इस दशक के अपने सबसे बड़े राजनीतिक संकट के पूर्णकोणीय पटाक्षेप पर पहुंच गया. लोकतांत्रिक संविधान के अनुरूप चुने गये पहले राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद द्वारा शपथ लेने के तीन साल के भीतर ही, वर्ष 2012 में, त्यागपत्र देने से शुरू हुए राजनीतिक संकट ने महज सवा लाख आबादी वाले इस खूबसूरत द्वीपीय देश को राजनीतिक अस्थिरता के दौर में डाल दिया था. मोहम्मद नशीद ने राष्ट्रपति रहते हुए देश की पर्यटन नीति में बदलाव किये थे. इनसे मौमून अब्दुल गयूम और उनके भाई अब्दुल्ला यामीन के आर्थिक हितों को ठेस लगी थी. नवम्बर, 2013 में गयूम के प्रयासों से यामीन ने राष्ट्रपति की कुर्सी अपने नाम की. तबसे यामीन और नशीद के बीच राजनीतिक संघर्ष जारी था. उस समय हिंदमहासागर में चीन स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स नीति के तहत बड़े कदम उठा रहा था. तब, गयूम के बाद नशीद भी चीन के सामरिक व आर्थिक आकर्षण में आने को उद्यत थे. वर्ष 2011 हुए सत्रहवें दक्षेस सम्मेलन में भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मालदीव में आने के एक दिन पूर्

भूटान में लोकतंत्र का नया संस्करण

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साभार: अमर उजाला भारत, नेपाल और चीन की भौगोलिक विन्यासों में स्थलबद्ध भूटान आज (18.10.18) अपने शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक सत्ता-हस्तांतरण के तीसरे संस्करण की भूमिका लिखने वाला है। भूटान के संविधान के अनुसार आम चुनाव दो चरणों में होते हैं। पहले चरण में मतदाता विभिन्न दलों में से अपने पसंद के दल चुनते हैं। सर्वाधिक पसंद किये गए केवल दो दलों के उम्मीदवारों को ही दूसरे चरण में भूटान के 20 जिलों से उम्मीदवारी का मौका मिलता है। राष्ट्रीय सभा (चोगदू) के निम्न सदन के 47 सीटों में से अधिकांश पर विजयी दल के नेता को भूटान के राजा द्वारा प्रधानमंत्री नियुक्त किया जाता है। इस बार के पहले चरण में विगत 15 सितंबर को हुए चुनाव में भूटान की जनता ने सभी को चौंकाते हुए भारत के प्रति उदार रुख बरतने वाली सत्तारूढ़ पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) को तीसरे स्थान पर खिसकाते हुए अगले चरण से ही बाहर कर दिया और छह साल पुराने अपेक्षाकृत नये दल ड्रूक न्यामरूप चोगपा (डीएनटी) को पहले स्थान पर और 2008 के पहले आम चुनाव को जीतने वाले ड्रूक फियंजम चोगपा (डीपीटी) को दूसरे स्थान पर अपना पसंदीदा दल करार दिया। दूसरे चरण में म

आवाज़ में दिखते थे हज़ारों नज़ारे

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साभार: अहा ज़िंदगी, भास्कर  “आपने तो उस दिन हमारे दिलों की धड़कनें  बार-बार ऊपर-नीचे कीं।” 1975 में संसद की कार्यवाही रुकवाकर भारत-पाकिस्तान हॉकी फाइनल मैच देखने वालीं प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने मशहूर उद्घोषक जसदेव सिंह जी से अपनी मुलाकात में ये उपरोक्त कथन कहे थे। जसदेव सिंह जी की गहरी आवाज के हर उतार-चढाव पर हर हिन्दुस्तानी के दिल की धड़कनें अपनी लय फिर पाने के लिए बेताब हो जाती थीं। बीते 25 सितम्बर 2018 से अब इस आवाज की बस यादें महकेंगी जो कुछ यों शुरू होती थीं: “मै जसदेव सिंह बोल रहा हूँ !” वो दौर था जब रेडियो ही वह जादुई पिटारा था जिसे कभी भी बुद्धू बक्सा नहीं कहा गया और जो अपनी आवाज के जरिये हर आमोखास के कानों में मनोरंजन का गूँज भर देता था। कान सुनते थे, आँखें देखने लग जाती थीं, मन कुलाँचे लेने लगता था और ज़ेहन में हर एक लफ्ज रुई के फाहों के मानिंद उतरते चले जाते और फिर एहसासों के मखमली तसव्वुर जब-तब उभर हर दिल को गुदगुदाते रहते। रेडियो के कद्रदान और खेलप्रेमी ये जानते हैं कि ऐसा तब जरूर होता जब अल्फ़ाज़ जसदेव सिंह के हों। हॉकी का खेल एक तेज खेल है। इसकी कमेंट्री करने के लिए आवाज मे

भारत और चीन के मध्य नेपाल ब्रिज या बफर स्टेट?

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साभार: नवभारत टाइम्स  चीन-नेपाल संबंधों के बारे में इतिहास के पन्ने बहुत कुछ कहने की स्थिति में नहीं हैं और इसका एक बेहद महत्वपूर्ण कारण भौगोलिक रूप से नेपाल का चीन से केवल उत्तर की ओर से जुड़ना है। तिब्बत की ओर से चीन से जुड़े नेपाल पर चीन की नज़र हमेशा रही है लेकिन भारत-नेपाल संबंध व भारत की तिब्बत मुद्दे पर दिलचस्पी को देखते हुए चीन सशंकित ही रहता आया था। नेपाल के राजतांत्रिक लोकतंत्र से लोकतांत्रिक गणतंत्र बनने की विकासयात्रा के मध्य उभरे वामपंथी नेतृत्व की उपस्थिति से चीन को नेपाल के करीब आने में एक सहूलियत अवश्य हुई है। नेपाल जहाँ चीन की ओबोर नीति को समर्थन देने वाले देशों में अग्रणी देश बना वहीं उसी ओबोर नीति के तहत चीन ने नेपाल में भारी निवेश करना शुरू किया। सितम्बर माह में ही चीन ने 2.4 बिलियन अमेरिकी डॉलर निवेश की घोषणा की जो चीन-नेपाल क्रॉस बॉर्डर रेलवे लाइन विकसित करने में प्रयुक्त होगा। चीन और नेपाल ट्रांजिट प्रोटोकॉल के लिए सहमत हुए हैं जिससे नेपाल अपनी जरुरत के मुताबिक छह बॉर्डर पॉइंट्स यथा- रसुवा, तातोपानी, कोरला, कीमाथांका, यारी और ओलांगचुंग गोला का इस्तेमाल कर सकेगा। इसक

अपने भीतर के गाँधी के खोजें

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साभार: आईनेक्स्ट जागरण      जितना पढ़्ता जाता हूँ गाँधी जी को उतना ही प्रभावित होता जाता हूँ। मेरे लिये गाँधी जी सम्भवत: सबसे पहले सामने आये दो माध्यमों से, पहला- रूपये की नोट से, दूसरा एक लोकप्रिय भजन- रघुपति राघव राजाराम...फिर पता चला इन्हें बापू भी कहते हैं; मोहन भी, इन्होने आज़ादी दिलवाई और सत्य, अहिंसा का पाठ पढ़ाया। बापू की लाठी और चश्मा एक बिम्ब बनाते रहे।  इसमे चरखा बाद में जुड़ गया। पहले जाना कि यह भी एक महापुरूष है, बाकि कई महापुरुषों की तरह। और तो ये उनमे कमजोर ही दिखते हैं। सदा सच बोलते हैं और हाँ पढ़ाई में कोई तीस मारखां नहीं थे। ये बात बहुत राहत पहुँचाती थी। पहला महापुरुष जो संकोची था, अध्ययन में सामान्य था। मतलब ये कि --बचपन में सोचता था --ओह तो, महापुरुष बना जा सकता है, कोई राम या कृष्णजी की तरह, पूत के पांव पालने में ही नहीं दिखाने हैं। फिर गाँधी जी का 'हरिश्चंद्र नाटक' वाला प्रकरण और फिर उनकी आत्मकथा का पढ़ना.. मोहनदास का झूठ बोलना, पिताजी से पत्र लिखकर क्षमा याचना करना। पिता-पुत्र की आँखों से झर-झर मोतियों का झरना. ...प्रसंग अनगिन जाने फिर तो..पर एक खास बात ह

एकजुट अमेरिकी मीडिया द्वारा #एनेमीऑफ़नन कैम्पेन

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#एनेमीऑफ़नन साभार: गंभीर समाचार  जिस दिन भारत अपनी आजादी की इकहत्तरवीं वर्षगांठ मनाने में मशगूल था उसीदिन अमेरिका के छोटे-बड़े तकरीबन साढ़े तीन सौ मीडिया-प्रतिष्ठानों ने  अमेरिकी प्रेस की आजादी के पक्ष में सम्पादकीय प्रकाशित किया । यह एक अभूतपूर्व घटना थी। पर कहना होगा कि यह उस अभूतपूर्व रवैये के विरुद्ध एकजुट प्रदर्शन था जो किसी भी अन्य अमेरिकी राष्ट्रपति में यों नहीं रही । पिछले एक अरसे से मीडिया द्वारा हो रही अपनी हर आलोचना को अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प ‘फेकन्यूज’ कह रहे हैं और जोर देकर दुहराते हैं कि मीडिया द्वारा कहा गया, दिखाया गया कुछ भी तथ्य नहीं है। ट्रम्प के अनुसार मीडिया, विपक्षी दल की तरह व्यवहार कर रहा है और यह देशहित में नहीं है। ट्रम्प यहाँ तक कहने लगे कि मीडिया उनकी दुश्मन नहीं बल्कि देश की दुश्मन है। ट्रम्प अपने ट्विटर अकाउंट से बमबारी करते हैं तो उसी ट्विटर पर एकजुट अमेरिकी मीडिया द्वारा #एनेमीऑफ़नन कैम्पेन चलाया गया। बोस्टन ग्लोब की अपील पर अमेरिकी मीडिया ने राष्ट्रपति ट्रम्प के इस मीडिया विरोधी रवैये का एकजुट विरोध किया।  कमोबेश पूरी दुनिया में सत्ता के साथ मीडिया के जो

विश्व राजनीति में मीडिया

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 “जो मीडिया को नियंत्रित करता है वह मन को नियंत्रित करता है।  (जिम मॉरिसन )” साभार: गंभीर समाचार  अभिव्यक्ति के लिए भाषा और उसके संकेत चिन्हों को दर्ज करने की तकनीक के सहारे मानव ने अभूतपूर्व प्रगति की है। साझी सामाजिक स्मृति सहेजी जा सकती है और भविष्य के लिए प्रयोग में भी लाई जा सकती है। मानव-अभिव्यक्ति के अनगिन माध्यम विकसित हुए। उन सभी मीडियम्स का बहुवचन ही मीडिया कहलाता है । जैसे-जैसे राजनीतिक संरचनाएँ विकसित होती गयीं, मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण होती गयी। यों तो इतिहास के पन्नों में मीडिया के कितने ही रंग हैं लेकिन अब जबकि संपूर्ण विश्व में एक राजनीतिक मूल्य के रूप में लोकतंत्र स्वीकार्य हो चला है, मीडिया की भूमिका कमोबेश अब यह स्थापित है कि वह लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में जवाबदेही व पारदर्शिता सुनिश्चित करता है और नागरिक-समाज एवं सरकार के मध्य सेतु बनकर राजनीतिक संक्रियाओं के निर्वहन में योग देता है।  वैश्वीकरण और मीडिया का वैश्विक स्वरूप  संचार क्रांति ने समूचे दुनिया से एक क्लिक पर संपर्क-सम्बद्धता उपलब्ध करा दिया है। इंटरनेट ने पूरी दुनिया को चौबीसों घंटे जोड़ रखा है। सूच

What is Ideology?

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व्हाट इज आइडिओलॉजी: आंसर जेनरेशन नेक्स्ट के लिए  साभार: दिल्ली की सेल्फी  केवल शब्द से पकड़ें, माने लिटरली; विचारधारा को आइडियाज का एक स्ट्रीम होना चाहिए पर मामला इतना आसान नहीं है। अब यह वर्ड, टर्म (टर्मिनोलॉजी) बन गया है और एक स्पेशल मीनिंग में यूज़ होता है। विचारधारा; एक खास विचारों का पुलिंदा है जिसके आधार पर किसी भी घटना (फिनॉमिना) को देखा, परखा, समझा और कहा जाता है।उन खास विचारों की बुनावट लॉजिकल होगी ताकि किसी भी रेशनल माइंड को अपील करे। उन खास आइडियाज से एक नजरिया (पर्स्पेक्टिव) बनाने में मदद मिलती है। समझना जरूरी यह है कि किसी आइडियोलॉजी से जब हम किसी फिनॉमिना को देखने-समझने की कोशिश करते हैं तो वह अंडरस्टैंडिंग और वह कन्क्लूजन फाइनल नहीं होता। उसी घटना को किसी दूसरे आइडियोलॉजी से किसी दुसरी तरह देखा-समझा जा सकता है। अब जब ऐसा है कि एक आइडियोलॉजी से टोटल ट्रुथ तक पहुँचा नहीं जा सकता तो फिर आइडियोलॉजी की इम्पोर्टेंस ही क्या है ? है, हुज़ूर ! बहुत जरूरी है समझना ! हम अगड़म बगड़म माने स्पोरेडिकली या ज़िगज़ैग में सोचते हैं नॉर्मली। और यही प्रॉब्लम की जड़ है। हम फुटबाल से सोचना शुरू करते ह

क्या हम निष्पक्ष मीडिया के लिए तैयार हैं?

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साभार: दिल्ली की सेल्फी  निष्पक्ष न्यूज-व्यूज पढ़ने-देखने के लिए हमें अपनी जेब से पैसे खर्च करने को धीरे-धीरे मन बनाना होगा। प्रायोजित न्यूज संस्कृति में सबसे बड़ा प्रायोजक सरकारी विज्ञापन के बहाने सरकार ही बन जाती है। प्रायोजित न्यूज संस्कृति में हम मीडिया और सरकार से इस सकारात्मक उम्मीद में होते हैं कि ये दोनों खुद राजनीतिक नैतिकता का अनुपालन करेंगे। यह अजीब स्थिति है। घर में बैठे-बैठे हम ये उम्मीद करते हैं कि मीडिया अपना काम करे और आपको न्यूज पहुँचाए और उसी भोलेपन से हम सोचते हैं कि सरकार चुन ली गई है और अब वह अपना काम करे! मीडिया लोकतंत्र का चौथा खंभा इसलिए है क्यूँकि वह सार्वजानिक पक्ष पर प्रश्न कर सकता है। प्रश्न करने के पीछे एक तैयारी करनी होती है। इस तैयारी में जीते-जागते, पढ़े-लिखे लोग होते हैं, जिनके दिन का 18-20 घंटा लगता है, उन्हें भी उसी रेट पर बाजार सामान देता है, उन्हें भी अपना परिवार चलाना है, यह तैयारी ही उनका रोजगार है। ग्लोबलाईजेशन और तगड़े बाजारवाद के दौर में एक पत्रिका, एक अखबार और एक चैनल चलाना बेहद ही चुनौती भरा काम है। एकबार पैसा लगाने के बाद अपना संस्थान बचाना

आर्मी अरमानों के कप्तान इमरान

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साभार: गंभीर समाचार  पहचान की औपनिवेशिक जिद की बुनियाद पर बने पाकिस्तान का इतिहास इतना उलटफेर वाला है कि एक राष्ट्र के तौर पर इसकी इमारत को कभी मुकम्मल छत नसीब ही नहीं हुई। भारत को जहाँ 1950 में ही एक दुरुस्त संविधान मिला, वहीं पाकिस्तानी अवाम को उनका आईन आजादी के 26 साल बाद नसीब हुआ। इन बीते छब्बीस सालों में एक सशक्त राजनीतिक व्यवस्था और कुशल नेतृत्व के दारुण अभाव ने पाकिस्तान के ‘राजनीतिक विकास’ को गहरी चोट पहुंचाई और यहाँ लोकतंत्र आकाशकुसुम सा बन गया। जैसा कि औपनिवेशिक अतीत के नवस्वतंत्र राष्ट्रों में होता है कि बहुधा वहाँ ईमानदार, कुशल, लोकतांत्रिक नेतृत्व के अभाव में ‘सहज राजनीतिक विकास की प्रक्रिया’ अवरुद्ध हो जाती है और लोकतंत्र के पनपने की जमीन पर अनायास अनचाही तानाशाही की घास उग आती है, दक्षिण एशियाई परिदृश्य में पाकिस्तान इसका सबसे बड़ा उदाहरण है ।  अदृश्य हाथ वाला इस्टैब्लिशमेंट और उसका डीप स्टेट   पाकिस्तान में इस अनचाही तानाशाही घास की खेती कभी प्रकट तो कभी अप्रकट रहकर सेना करती है। लोकतंत्र के सामान्य लक्षणों में से एक महत्वपूर्ण लक्षण है, नियमित अंतराल पर स्वच्छ व निष्पक्