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Showing posts from May, 2018

मोदी डॉक्ट्रिन नहीं पर मोदी प्रभाव

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साभार: प्रभात खबर  भारतीय लोकतंत्र की विपुल संभावनाएं कुछ ऐसी हैं कि इसमें यह उम्मीद करना कि प्रधानमंत्री एक प्रशिक्षित सामरिक चिंतक हों, ठीक नहीं। इसलिए जवाहरलाल नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक की विदेश नीति, संस्थागत प्रयासों से अधिक व्यक्तिगत करिश्मे से अधिक संचालित की गयी। आज़ादी के बाद जन्मे नेताओं की पीढ़ी के पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में भी यह करिश्मा है और उन्होंने इसका भरपूर इस्तेमाल भी किया। विश्व-नेताओं को उनके पहले नाम से संबोधित करना हो या उन्हें गर्मजोशी से गले लगाना हो, मोदी हमेशा विदेश नीति में व्यक्तिगत सिरा खंगालते रहे। अमेरिका, फ़्रांस और जापान के द्विपक्षीय संबंधों में इसका असर भी महसूस किया गया। मोदी सरकार से विदेश नीति को लेकर की जा रही अपेक्षाओं के दो बड़े आधार थे। एक तो कांग्रेस से इतर पहली बार कोई दूसरा दल प्रचंड बहुमत से सत्ता को गले लगा रहा था दूसरे प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी जैसे नेता शपथ ग्रहण करने जा रहे थे जिन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अपने दिनों में न केवल कई विदेश यात्राएँ की थीं और व्यापारिक समूहों आदि से संबंध स्थापित किये थे बल्कि पू

‘आई हेट पॉलिटिक्स': एक पिछड़ा और गैर-जिम्मेदार जुमला

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साभार: दिल्ली की सेल्फी  राजनीति' एक अद्भुत शब्द है। यह विषय भी है और व्यवहार भी, प्रक्रिया भी है और कला भी। इतनी घुली-मिली है कि जो इसमें रूचि नहीं लेता यह उसमें भी रूचि लेती है। राजनीति का केवल एक 'सार्वजानिक' पक्ष ही हमें दिखलाई पड़ता है और इस पक्ष के जो खिलाड़ी हैं उनके चरित्र से ही समूचे राजनीति का हम चरित्र-चित्रण कर देते हैं। राजनीति का यह 'सार्वजानिक पक्ष' भी हमें इतना प्रभावी रूप से दृष्टिगोचर इसलिए होता है क्योंकि हमनें 'लोकतांत्रिक' शासन प्रणाली अपनाई है और इसकी कई संक्रियाओं में हमें स्वयं को परिभाग करने का अवसर मिलता है। किन्तु 'राजनीति' को केवल उसके इस सार्वजानिक पक्ष से नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि उससे पहले यह इस सार्वजानिक पक्ष का दर्शन तैयार करती है, इस प्रश्न का उत्तर तैयार करती है कि आखिर हमें कोई व्यवस्था क्यों चाहिए और अंततः यह व्यवस्था हम कैसे आत्मसात करने जा रहे हैं! यह सभी महत्वपूर्ण बिंदु हैं। विषय के रूप में 'राजनीति' पल-पल बदलते व्यक्ति के बहुमुखी विकास की चिंता करती है। व्यवहार के रूप में 'राजनीति' उन प्रक्र

त्रेता में मोदी और कल में ओली

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साभार: गंभीर समाचार  जब हम पैदल होते हैं तो तेज रफ़्तार गाड़ियों पर कोफ़्त होती है और जब हम गाड़ी में होते हैं तो कई बार बीच में आ जाने वाले पैदल यात्रियों पर कोफ़्त होती है। यहाँ, नैतिकता से अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न वरीयता का है। विश्व-राजनीति में कुछ इस तरह ही अपने राष्ट्र के हित ही वरीय होते हैं चाहे हमारा अतीत कुछ भी हो और वर्तमान जैसा भी हो। एक समझदार राष्ट्र और उसके कुशल कूटनीतिज्ञ यह समझते हैं कि अपने राष्ट्र के राष्ट्रहित किसी दूसरे राष्ट्र के सापेक्ष तभी और उसी सीमा तक साधे जा सकते हैं, जब और जिस सीमा तक हमारे हितों की आयोजना में उस राष्ट्र को अपना राष्ट्रहित भी दिखे। भारत-नेपाल संबंधों में भारतीय कूटनीति से यह त्रुटि हाल के वर्षों में हुई है।  भारत अपने गहरे सांस्कृतिक संबंधों की थाती पर नेपाल और भूटान से आधुनिक संबंधों का निर्वहन करता रहा है। इसलिए ही भारत से लगी दोनों राष्ट्रों की सीमायें ‘ओपन बॉर्डर सिस्टम’ में हैं और दोनों राष्ट्रों के नागरिक भारतीय सीमा में आवाजाही कर सकते हैं। राष्ट्रहित कोई स्थिर मूल्य नहीं हैं। वैश्विक राजनीतिक हलचलों के अनुरूप उनमें गतिक सम्भावना बनती रहती

बस डोलता बस बोलता बिस्मार्क

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मोदी सरकार के चार वर्ष: विदेश नीति समीक्षा साभार: गंभीर समाचार  "लोग उतना झूठ कभी नहीं बोलते जितना कि शिकार के बाद, युद्ध के दरम्यान और चुनाव के पहले बोलते हैं। " - ऑटो वॉन बिस्मार्क अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह के विदेश नीति का आधार, झुकाव और कार्यशैली कमोबेश एक-सी रही। उसमें ‘परिवर्तन और सततता’ का गुण विद्यमान था। अवसर अनुकूल जोखिम लिए गए और मूलभूत मुद्दों पर दृढ़ता बनी रही। दोनों सरकारों ने अपने क्षेत्र के पड़ोसियों से संबंध बनाये रखने का महत्त्व समझा था और विश्व-राजनीति में एक स्पष्ट रुख रखते हुए जहाँ-तहाँ संबंधों को बनाने की दिशा में प्रयासरत रहे। विश्व-राजनीति का एकल ध्रुव अमेरिका बना हुआ था और उसके सबप्राइम क्राइसिस से दुनिया उबरी ही थी। भारत के संबंध अमेरिका से क्रमशः प्रगाढ़ हो रहे थे और रूस से संबंध सततता में थे। पर्यावरण, खाद्य-सुरक्षा और संयुक्त राष्ट्र सुधार जैसे मुद्दों पर भारतीय रुख स्पष्ट था और लोकतांत्रिक समानता पर आधारित था। भारत के पड़ोस में परेशानियाँ थीं फिर भी दक्षेस की बैठकें जारी थीं। भारत में जब मई, 2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार बहुमत से चुनी गयी थ

राजनीति क्यों?

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डॉ. श्रीश पाठक  Image Source: The New Yorker 'राजनीति' एक अद्भुत शब्द है। यह विषय भी है और व्यवहार भी, प्रक्रिया भी है और कला भी। इतनी घुली-मिली है कि जो इसमें रूचि नहीं लेता यह उसमें भी रूचि लेती है। राजनीति का केवल एक 'सार्वजानिक' पक्ष ही हमें दिखलाई पड़ता है और इस पक्ष के जो खिलाड़ी हैं उनके चरित्र से ही समूचे राजनीति का हम चरित्र-चित्रण कर देते हैं। राजनीति का यह 'सार्वजानिक पक्ष' भी हमें इतना प्रभावी रूप से दृष्टिगोचर इसलिए होता है क्योंकि हमनें 'लोकतांत्रिक' शासन प्रणाली अपनाई है और इसकी कई संक्रियाओं में हमें स्वयं को परिभाग करने का अवसर मिलता है। किन्तु 'राजनीति' को केवल उसके इस सार्वजानिक पक्ष से नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि उससे पहले यह इस सार्वजानिक पक्ष का दर्शन तैयार करती है, इस प्रश्न का उत्तर तैयार करती है कि आखिर हमें कोई व्यवस्था क्यों चाहिए और अंततः यह व्यवस्था हम कैसे आत्मसात करने जा रहे हैं! यह सभी महत्वपूर्ण बिंदु हैं। विषय के रूप में 'राजनीति' पल-पल बदलते व्यक्ति के बहुमुखी विकास की चिंता करती है। व्यवहार के रूप में &#