Posts

Showing posts from June, 2018

राजनीतिक दल से उम्मीदों की प्रश्नावली

Image
देर-सबेर सभी राजनीतिक दल यह एहसास करा ही देते हैं कि उनका मकसद सत्ता भोगना ही है। एक समर्पित कार्यकर्त्ता को फिर दुसरे दलों के पुराने करतूतों का कच्चा-चिट्ठा रखने के अलावा और कुछ सूझता नहीं है। कई बार कार्यकर्ता व्यक्तिगत दुश्वारियाँ और दुश्मनी पाल लेते हैं और अक्सर चुनाव के बाद जब उनके राजनीतिक आका आपस में गलबहियाँ कर लेते हैं तो उस वक्त दिल में कहीं नश्तर सा लगता है और दुनिया के बड़े ज़ालिम होने का एहसास होता है। राजनीतिक दल अपनी परिभाषा में ही सत्ता के लिए संघर्षशील होते हैं, तो सत्ता के लिए संघर्ष करने में कोई बुराई नहीं है। किन्तु राजनीतिक दल, महज सत्ताप्राप्ति के ही निमित्त नहीं होते हैं। हाँ, यह अवश्य ही है कि सत्ताप्राप्ति ही उनका एकमात्र ध्येय बनकर रह गया है।  संविधान सभा की मंशा यह नहीं थी कि नागरिक, किसी दल विशेष के होकर रह जाएँ। देश के भीतर अनगिनत मुद्दे होते हैं और वे मुद्दे अपनी बदलती प्राथमिकता और प्रासंगिकता में परिदृश्य पर उभरते हैं। किसी मुद्दे के सार्थक निस्तारण हेतु सम्यक नीति और कार्ययोजना की आवश्यकता होती है जिससे अधिकतम नागरिकों का वृहत्तम हित सधे। एक राजनीतिक दल म

भारतीय विदेश नीति के बढ़ते आयाम

Image
साभार: दैनिक जागरण   किसी भी चुनी हुई सरकार के लिए विदेश नीति सर्वाधिक कठिन आयाम होती है। अनिश्चितता इसका निश्चित गुणधर्म है इसलिए इसमें सफलता और असफलता दूरगामी परिणाम तथा महत्त्व लेकर आती है। अपेक्षाकृत रूप से नरेंद्र मोदी सरकार को विश्व-राजनीति का एक कठिन समय नसीब हुआ है। पिछले दो दशकों में ऐसा नहीं था कि समस्याएं जटिल नहीं थीं लेकिन एक सर्वोच्च विश्व शक्ति के रूप में अमेरिका की स्थिति सर्वमान्य थी। रूस, दक्षिण कोरिया, जापान, आस्ट्रेलिया, ब्राजील, ब्रिटेन आदि सहित यूरोप के राष्ट्र अमेरिका की पंक्ति में ही स्वयं को अनुकूल कर विकास के पायदान पर चढ़ने के हिमायती बने रहे। संयुक्त राष्ट्र सहित विश्व की दूसरे बड़े आर्थिक व सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन कमोबेश अमेरिकी वित्त पर ही आधारित होते हुए कार्यरत रहे।   स्थितियाँ एकदम से बदल नहीं गयी हैं, लेकिन पुतिन का रूस अब महत्वाकांक्षी राष्ट्र है, शी जिनपिंग का चीन ओबोर नीति से अपनी वैश्विक महत्वाकांक्षा स्पष्ट रख रहा है, जापान अपनी शांतिपूर्ण विदेश नीति का मंतव्य छोड़कर सक्रिय विदेश नीति की ओर रुख कर चुका है। रूस, चीन, पाकिस्तान मिलकर एशिया में साझी रण

झटके में इतिहास बनाने वाली मुलाकात

Image
साभार: नवभारत टाइम्स   दुनिया भर से आये तकरीबन ढाई हजार से अधिक पत्रकार सिंगापुर के खूबसूरत द्वीप सेंटोसा में इस दशक की बहुप्रतीक्षित भेंट ‘डोनॉल्ड ट्रम्प- किम जोंग-उन’ के साक्षी बने और इस भेंट के एक प्रमुख सूत्रधार दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति मून जाए-इन ने अमेरिका और उत्तर कोरिया के इस ‘सेंटोसा एग्रीमेंट’ को आख़िरी बचे शीतकालीन अवशेष को समाप्त करने में निर्णायक भूमिका वाला बताया। यकीनन, विश्व कूटनीति का यह एक शानदार पड़ाव था। कोरियाई द्वीप 1910 से 1945 ई. तक जापानी नियंत्रण में रहा। द्वितीय विश्व युद्ध में जब अमेरिका-ब्रिटेन-सोवियत संघ के संयुक्त नेतृत्व में हिरोशिमा-नागासाकी की भीषण विभीषिका के बाद जापान ने पराजय स्वीकार कर ली तब कोरिया की सीमाओं से लगे सोवियत संघ और प्रमुख विश्व शक्ति अमेरिका ने कोरिया को विभाजित करने का निर्णय किया। 1950 में सोवियत संचालित उत्तर कोरिया के शासक किम इल-संग और अमेरिका द्वारा संचालित दक्षिण कोरिया के शासक सिंगमन री में समूचे कोरिया को हथियाने के लिए भयानक संघर्ष छिड़ पड़ा. अमेरिका के तत्कालीन विदेश मंत्री डीन एचेसन ने एक बार कहा था कि दुनिया के सबसे बेहतरी

फिर वही दिल लाया हूँ...!

Image
गंभीर समाचार   निस्संदेह, भारतीय विदेश नीति के इतिहास में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अध्याय रुचिकर रहेगा। नरेंद्र मोदी की विदेश नीति में व्यक्तिगत रूचि है और विश्व नेताओं से एक व्यक्तिगत रिश्ता बनाने में यकीन रखते हैं। लेकिन विदेश यात्राओं के मामले में उनका रिकॉर्ड यदि बेहद उल्लेखनीय है तो इसका एक कारण मौजूदा वैश्विक परिघटनाओं का बेहद अनिश्चित होना भी है। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक सुपरपॉवर राष्ट्र जहाँ अपने लिए ध्रुवीकृत और स्पष्ट समर्थन चाहता है वहीं एक वर्ल्डपॉवर राष्ट्र सभी अन्य राष्ट्रों से संतुलित संबंध की आकांक्षा रखता है। अमेरिका का अपने सहयोगियों से निर्बाध समर्थन की अपेक्षा रखना ठीक वैसे ही उचित है जैसे भारत जैसे देशों का लगभग सभी महत्वपूर्ण राष्ट्रों से संबंधों की अपेक्षा रखना उचित है। वैश्वीकरण की प्रक्रिया के आर्थिक परिप्रेक्ष्य ने जहाँ सर्वोच्च शक्ति अमेरिका को यह सहिष्णुता दी है कि विश्व के राष्ट्र संबंधों के मनचाहे आयामों यथा- द्विपक्षीय, बहुपक्षीय आदि में अपने अंतरराष्ट्रीय संबंध बना सकते हैं वहीं भारत जैसे देश वैश्वीकरण से उपजी अपनी नयी शक्ति व स्वीकार्यता को ‘स्वतंत