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Showing posts from July, 2018

जहाँगीर रतनजी दादाभाई टाटा (जेआरडी)

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साभार: दैनिक भास्कर  वो जमाना था जब समझा जाता था कि रूस को कभी पराजित नहीं किया जा सकता था, क्योंकि कोई भी शक्तिशाली सेना यदि इसके भीतर प्रवेश कर भी ले तो भी रूस के भीमकाय भूगोल में उसे उलझना ही था। लेकिन पिद्दी सा जापान रूस के लिए मुसीबत बन अगले साल तक उसे हराने वाला था। जर्मन राजा अपने इरादों से यूरोप के बड़े खिलाड़ी फ़्रांस और ब्रिटेन के साम्राज्यवादी बुनियादों को हिलाने की फ़िराक में था। ऐसे में फ़्रांस, ब्रिटेन के साथ आपसी साम्राज्यवादी सघर्षों को तनिक विराम दे, ‘ऐंतांत कोर्डीएल’ के समझौतों को संपन्न कर राहत की साँस ले रहा था। कला और फैशन के लिए मशहूर फ़्रांस, चित्रकला की फ़ॉविज्म धारा को अपना रहा था जिसका यकीन था कि कैनवस पर मानव मनोभावों को उकेरना आवश्यक है भले ही असंगत रंगों का चटख प्रयोग करना पड़े । बेहद लोकप्रिय बाईसिकिल रेस प्रतियोगिता ‘टूर डी फ्रांस’ के दूसरे संस्करण का कम उम्र का विजेता हेनरी कोर्नेट अपनी बुलंदियों पर था। अमेरिका के ओरविल व विलबर राइट जब अपने हवा से भारी एयरक्राफ्ट फ्लायर-दो को सफलतापूर्वक उड़ा चुके थे तो उसके सात महीने के बाद २९ जुलाई १९०४ के पेरिस में भारत के सबस

भारत में समान नागरिक संहिता की स्थिति तब तक नहीं बन सकती

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साभार: दिल्ली की सेल्फी  जटिल परतदार समस्याओं के समाधान भारतीय संविधान में नीति निदेशक तत्वों में रखे गए हैं। नीति निदेशक तत्व सरकार व समाज के लिए बाध्यकारी नहीं होते किन्तु उन तत्वों का नीति निदेशक तत्वों में होना यह बताता है कि वे तत्व संविधाननिर्माताओं के भविष्य के भारत में एक अनिवार्य तत्व के रूप में हैं, इसका सीधा मतलब यह है कि वे सभी तत्व जो नीति निदेशक तत्वों की श्रेणी में हैं, उन्हें भविष्य में कभी न कभी भारत की जमीनी हकीकत में उतारना ही है। उनमें से एक तत्व ‘समान नागरिक संहिता’ भी है। आइये पहले समझते हैं कि क्या है यह ‘समान नागरिक संहिता’ ? एक व्यक्ति के जीवन के कई आयाम होते हैं और वे सभी आयाम दूसरे व्यक्तियों को भी प्रभावित करते हैं। राजनीतिक जीवन के साथ ही साथ सामाजिक जीवन में भी दायित्व और उत्तरदायित्व का तत्व राजनीतिक और सामाजिक विकास के लिए आवश्यक है जिससे अंततः किसी राष्ट्र का सर्वांगीण विकास संभव होता है। बहुधा दायित्व और कर्तव्य के मार्गदर्शन के लिए एक-दूसरे पर बनती निर्भरता अपनी भूमिका निभाती है, किन्तु दायित्व-निर्वहन के न होने की स्थति में अथवा न्यून होने की स्थिति

‘दौर-ए-दिखाऊ देशभक्ति’, देशप्रेमी या भ्रष्ट

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साभार: दिल्ली की सेल्फी  आजकल कुछ को देशद्रोही बताने के लिए स्वतः ही स्वयं को परम देशभक्त घोषित करने की परम्परा चली है। लोग उस छोटे भाई की तरह तात्कालिक लोभ में मझले भाई के विरोध पर उतर आये हैं जिसने अपने बड़े भाई के किसी गलत फैसले का महज विरोध कर दिया है। ‘देशभक्ति’ को ‘राष्ट्रवादी’ होना बताया जा रहा और इस साबुन से सारे कुकृत्य धुलकर लंबा गाढ़ा चन्दन लगाकर लोग भारत माता का जयकारा लगाकर सीना ताने ‘भारतीयता’ को ताक पर रख रहे। नारों, जुमलों, पोस्टरों, प्रोफाइल पिक्स और डीपी आदि की ‘दिखाऊ देशभक्ति’ को छोड़ दें तो किसकी रोजमर्रा की ज़िंदगी में ‘देश’ होता है? दिनभर के अपने फैसलों में कब ‘देश’ कसौटी बनता है कि कौन सोचता है कि मेरे किसी कदम से ‘देश’ को क्या नुकसान होगा या फायदा होगा! भ्रष्ट व्यक्तियों का तंत्र भ्रष्ट होता है। राज्य, कर वसूलती है और अपने नागरिकों की जरूरतों का पालन करती है। लेकिन नौकरीपेशा टैक्स बचाने के लिए सीए और वकील को जुगाड़ लगाने को कहता है। उद्योगपति, राजनीतिक दलों को चंदा दे उनसे अपने लिए छिपे-छिपे सहूलियतें बटोरते हैं और टैक्स से छूट जाते हैं, सो अलग। कितने तो कर देते ही न

सियाह औ सुफ़ैद से कहीं अधिक है नवलेखन पुरस्कार-2017 से सम्मानित कृति सियाहत

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साभार: जानकीपुल  (आलोक रंजन की किताब ‘सियाहत ’) आज की दुनिया, आज का समाज उतने में ही उठक-बैठक कर रहा जितनी मोहलत उसे उसका बाजार दे रहा। यह तीखा सा सच स्वीकारने के लिए आपको कोई अलग से मार्क्सवादी अथवा पूँजीवादी होने की जरुरत नहीं है बस, अपने स्वाभाविक दोहरेपन को तनिक विश्राम दे ईमानदार बन महसूस करना है। इस बाजारवाद ने एक निर्मम उतावलापन दिया है और दी है हमें बेशर्म कभी पूरी न होने वाली हवस। बाजार के चाबुक पर जितनी दौड़ हम लगाते हैं उतना ही पूंजीपति घुड़सवार को मुनाफा होता है। वह इस मुनाफे से अकादमिकी सहित सबकुछ खरीदते हुए क्वालिटी लाइफ़ के मायनों में ‘वस्तु-संग्रह की अंतहीन प्रेरणा’ ठूंस देता है और हम कब बाजार के टट्टू बन गए, यह हमें भान ही नहीं होता। इस दौड़ में है नहीं,  तो दो पल ठहरकर हवा का स्वाद लेने का सुकून। सुकून का ठहराव नहीं है तो हम जल्दी-जल्दी सबकुछ समझ लेना चाहते हैं। यह हड़बड़ी भीतर ‘सरलीकरण की प्रवृत्ति’ पैदा कर देती है। अपने-अपने ‘सरलीकरण’ से इतर जो कुछ भी दिखाई देता है उसे हम नकारना शुरू कर देते हैं और सहसा हम असहिष्णु बन तो जाते हैं, पर यह भी कहाँ स्वीकार कर पाते हैं ! सरलीक

कर चले हम फ़िदा जानो-तन साथियों

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साभार: फिल्मसिटी वर्ल्ड  हकीकत: 1964   डॉ.श्रीश पाठक  दो-दो भयानक महायुद्धों वाली शताब्दी अपने छठे दशक में पहुँच रही थी। शीत युद्ध की लू चल रही थी जरूर,  पर लगता था कि विश्व अब वैश्विक विनाश की ओर फिर नहीं  बढ़ेगा। दुनिया के कई देश आज़ादी की हवा का स्वाद चख रहे थे और स्वयं को इस दुविधा में पा रहे थे कि लोकतंत्र के नारे के साथ ब्रितानी विरासत ढोते अमेरिका के कैम्प में जगह बनाई जाय अथवा समाजवाद के नारे के साथ मोटाते सोवियत रूस का दामन पकड़ा जाए। ऐसे में एक तीसरे सम्मानजनक विकल्प के साथ सद्यस्वतंत्र राष्ट्र भारत सज्ज हो कह रहा था कि साथ मिलकर एक नवीन राजनीतिक-आर्थिक वैश्विक क्रम की स्थापना सम्भव है। इस विकल्प में किसी भी कैम्प में जुड़ने की बाध्यता नहीं थी, कोई प्रायोजित शत्रुता मोल लेने की आवश्यकता नहीं थी और सबसे बड़ी बात दोनों ही कैम्प के देशों के साथ सहयोग और विकास का जरिया खुला हुआ था। एक ऐसा समय जब लग रहा था कि भारत का कुशल नेतृत्व विश्व में शांति और समानता स्थापित करने में एक प्रमुख कारण बन सकता है। भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की लोकप्रियता दुनिया में नए स्तर को स्पर्श कर रही थी

कश्मीरी कशमकश: नेपथ्य कथ्य

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साभार: गंभीर समाचार  जम्मू एवं कश्मीर के मायने सबके लिए एक नहीं हैं। सबकी अपनी-अपनी नज़र है और अपनी-अपनी समझ। इन सबके अपने-अपने नारे हैं और सब अपने-अपने सवालों के साथ हैं। इतिहास में आपस में लड़ते अध्याय हैं। राजनीति विरोधाभासी माँगों के जायज़-नाजायज़ होने में उलझी है। भूगोल इन सबसे बेखबर पर्यावरण की चुनौतियों को खामोशी से सह रहा। अर्थशास्त्र उस हिसाब में है कि केंद्र ने कश्मीर और जम्मू को कितना भेजा। लोक प्रशासन दफ्तर की फाइलों में हुए विकास और जमीन पर हुए विकास का अंतर मन मसोस स्वीकार कर रहा। शिक्षा, इस राज्य में अपना कोई लक्ष्य ही नियत नहीं कर पा रही। विज्ञान महज उन्हें उपलब्ध है जिनकी पहचान कश्मीरी तो है पर आबोहवा किसी मेट्रो शहर की है। दर्शन में कश्मीरीयत है पर उसकी मकबूलियत कश्मीरी नहीं है। साहित्य और भाषा के अपने संकट हैं, लिखे जा रहे तो पढ़े नहीं जा रहे, पढ़े जा रहे तो समझे नहीं जा रहे, समझे जा रहे तो फिर बोले नहीं जा रहे, बहसें एकतरफ़ा हैं लोग लामबंद हैं।  जो जम्मू है वह कश्मीर नहीं है। लद्दाख अपनी साख अलग ही छिपाए बैठा है। चीड़, चिनार, देवदार आपसे में बात नहीं कर रहे। झेलम, चिनाब, स