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Showing posts from August, 2018

What is Ideology?

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व्हाट इज आइडिओलॉजी: आंसर जेनरेशन नेक्स्ट के लिए  साभार: दिल्ली की सेल्फी  केवल शब्द से पकड़ें, माने लिटरली; विचारधारा को आइडियाज का एक स्ट्रीम होना चाहिए पर मामला इतना आसान नहीं है। अब यह वर्ड, टर्म (टर्मिनोलॉजी) बन गया है और एक स्पेशल मीनिंग में यूज़ होता है। विचारधारा; एक खास विचारों का पुलिंदा है जिसके आधार पर किसी भी घटना (फिनॉमिना) को देखा, परखा, समझा और कहा जाता है।उन खास विचारों की बुनावट लॉजिकल होगी ताकि किसी भी रेशनल माइंड को अपील करे। उन खास आइडियाज से एक नजरिया (पर्स्पेक्टिव) बनाने में मदद मिलती है। समझना जरूरी यह है कि किसी आइडियोलॉजी से जब हम किसी फिनॉमिना को देखने-समझने की कोशिश करते हैं तो वह अंडरस्टैंडिंग और वह कन्क्लूजन फाइनल नहीं होता। उसी घटना को किसी दूसरे आइडियोलॉजी से किसी दुसरी तरह देखा-समझा जा सकता है। अब जब ऐसा है कि एक आइडियोलॉजी से टोटल ट्रुथ तक पहुँचा नहीं जा सकता तो फिर आइडियोलॉजी की इम्पोर्टेंस ही क्या है ? है, हुज़ूर ! बहुत जरूरी है समझना ! हम अगड़म बगड़म माने स्पोरेडिकली या ज़िगज़ैग में सोचते हैं नॉर्मली। और यही प्रॉब्लम की जड़ है। हम फुटबाल से सोचना शुरू करते ह

जीवंत अस्मिताओं को महज प्रतीक बनाने का उन्माद बेहद निष्ठुर

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साभार: दिल्ली की सेल्फी  अगर संजीदा लोग समावेशी बात नहीं करेंगे तो अंततः कितनी घृणा भर जाएगी अपने प्यारे देश में। लोग गलतियाँ करते हैं, अगर यों ही हम प्रतिक्रियावादी हो जाएंगे तो फिर हमारा यह देश कमजोर होगा उधर दूर स्वर्ग से चर्चिल ठठाकर हँसेगा कि मैंने तो पहले ही कहा था कि भारत की वह राष्ट्र संकल्पना जिसमें सभी पहचानों के लोग रह सकते हैं वह कपोल है। विनम्रतापूर्वक कह रहा हूँ कि विश्व इतिहास हमें सिखाता है कि जब जब राष्ट्र भावना आरोपित की जाती है वह विनाशक होती है किन्तु जब तक यह स्वयमेव व स्वतः स्फूर्त होती है, कल्याणकारी होती है। क्या यह ठीक है कि कोई कानून के डर से अथवा समूह/व्यक्ति दबाव में राष्ट्र प्रतीकों का सम्मान करे? क्या यह स्थिति हमारे राष्ट्रप्रेम की असुरक्षा को नहीं जतलाती ? अमेरिकन फ्लैग की चड्ढियां पहने एक अमेरिकी का राष्ट्रवाद नहीं आहत होता पर हेल्मेट पर तिरंगा लगाए सचिन को जवाब देना पड़ता है। और यह भी सोचिए न कि प्रतीक, राष्ट्र होते हैं या राष्ट्र से प्रतीक होते हैं? फिर राष्ट्र बनते हैं किनसे नागरिकों से ही न! आधुनिक राष्ट्रराज्य की संकल्पना तो यही बताती है न कि व्यक्

क्या हम निष्पक्ष मीडिया के लिए तैयार हैं?

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साभार: दिल्ली की सेल्फी  निष्पक्ष न्यूज-व्यूज पढ़ने-देखने के लिए हमें अपनी जेब से पैसे खर्च करने को धीरे-धीरे मन बनाना होगा। प्रायोजित न्यूज संस्कृति में सबसे बड़ा प्रायोजक सरकारी विज्ञापन के बहाने सरकार ही बन जाती है। प्रायोजित न्यूज संस्कृति में हम मीडिया और सरकार से इस सकारात्मक उम्मीद में होते हैं कि ये दोनों खुद राजनीतिक नैतिकता का अनुपालन करेंगे। यह अजीब स्थिति है। घर में बैठे-बैठे हम ये उम्मीद करते हैं कि मीडिया अपना काम करे और आपको न्यूज पहुँचाए और उसी भोलेपन से हम सोचते हैं कि सरकार चुन ली गई है और अब वह अपना काम करे! मीडिया लोकतंत्र का चौथा खंभा इसलिए है क्यूँकि वह सार्वजानिक पक्ष पर प्रश्न कर सकता है। प्रश्न करने के पीछे एक तैयारी करनी होती है। इस तैयारी में जीते-जागते, पढ़े-लिखे लोग होते हैं, जिनके दिन का 18-20 घंटा लगता है, उन्हें भी उसी रेट पर बाजार सामान देता है, उन्हें भी अपना परिवार चलाना है, यह तैयारी ही उनका रोजगार है। ग्लोबलाईजेशन और तगड़े बाजारवाद के दौर में एक पत्रिका, एक अखबार और एक चैनल चलाना बेहद ही चुनौती भरा काम है। एकबार पैसा लगाने के बाद अपना संस्थान बचाना

आर्मी अरमानों के कप्तान इमरान

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साभार: गंभीर समाचार  पहचान की औपनिवेशिक जिद की बुनियाद पर बने पाकिस्तान का इतिहास इतना उलटफेर वाला है कि एक राष्ट्र के तौर पर इसकी इमारत को कभी मुकम्मल छत नसीब ही नहीं हुई। भारत को जहाँ 1950 में ही एक दुरुस्त संविधान मिला, वहीं पाकिस्तानी अवाम को उनका आईन आजादी के 26 साल बाद नसीब हुआ। इन बीते छब्बीस सालों में एक सशक्त राजनीतिक व्यवस्था और कुशल नेतृत्व के दारुण अभाव ने पाकिस्तान के ‘राजनीतिक विकास’ को गहरी चोट पहुंचाई और यहाँ लोकतंत्र आकाशकुसुम सा बन गया। जैसा कि औपनिवेशिक अतीत के नवस्वतंत्र राष्ट्रों में होता है कि बहुधा वहाँ ईमानदार, कुशल, लोकतांत्रिक नेतृत्व के अभाव में ‘सहज राजनीतिक विकास की प्रक्रिया’ अवरुद्ध हो जाती है और लोकतंत्र के पनपने की जमीन पर अनायास अनचाही तानाशाही की घास उग आती है, दक्षिण एशियाई परिदृश्य में पाकिस्तान इसका सबसे बड़ा उदाहरण है ।  अदृश्य हाथ वाला इस्टैब्लिशमेंट और उसका डीप स्टेट   पाकिस्तान में इस अनचाही तानाशाही घास की खेती कभी प्रकट तो कभी अप्रकट रहकर सेना करती है। लोकतंत्र के सामान्य लक्षणों में से एक महत्वपूर्ण लक्षण है, नियमित अंतराल पर स्वच्छ व निष्पक्