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सियाह औ सुफ़ैद से कहीं अधिक है नवलेखन पुरस्कार-2017 से सम्मानित कृति सियाहत

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साभार: जानकीपुल  (आलोक रंजन की किताब ‘सियाहत ’) आज की दुनिया, आज का समाज उतने में ही उठक-बैठक कर रहा जितनी मोहलत उसे उसका बाजार दे रहा। यह तीखा सा सच स्वीकारने के लिए आपको कोई अलग से मार्क्सवादी अथवा पूँजीवादी होने की जरुरत नहीं है बस, अपने स्वाभाविक दोहरेपन को तनिक विश्राम दे ईमानदार बन महसूस करना है। इस बाजारवाद ने एक निर्मम उतावलापन दिया है और दी है हमें बेशर्म कभी पूरी न होने वाली हवस। बाजार के चाबुक पर जितनी दौड़ हम लगाते हैं उतना ही पूंजीपति घुड़सवार को मुनाफा होता है। वह इस मुनाफे से अकादमिकी सहित सबकुछ खरीदते हुए क्वालिटी लाइफ़ के मायनों में ‘वस्तु-संग्रह की अंतहीन प्रेरणा’ ठूंस देता है और हम कब बाजार के टट्टू बन गए, यह हमें भान ही नहीं होता। इस दौड़ में है नहीं,  तो दो पल ठहरकर हवा का स्वाद लेने का सुकून। सुकून का ठहराव नहीं है तो हम जल्दी-जल्दी सबकुछ समझ लेना चाहते हैं। यह हड़बड़ी भीतर ‘सरलीकरण की प्रवृत्ति’ पैदा कर देती है। अपने-अपने ‘सरलीकरण’ से इतर जो कुछ भी दिखाई देता है उसे हम नकारना शुरू कर देते हैं और सहसा हम असहिष्णु बन तो जाते हैं, पर यह भी कहाँ स्वीकार कर पाते हैं ! सरलीक