Posts

Showing posts from April, 2020

#YesIMSecular

Image
Satish Acharya अब तो नहीं ही है लेकिन काफी लंबे समय तक इसका जरूर फर्क़ पड़ता था कि जिससे मिल रहा हूँ या बात कर रहा हूँ, वह किस जाति और धर्म का है। एक गाढ़ा पूर्वाग्रह रहता ही था। फिर कितने ही लोगों से मौका मिला और अलग-अलग लोग एक-एक कर कितने ही पूर्वाग्रह तोड़ते चले गए। सौभाग्य से बेहतर पढ़ने को मिला तो और भीतर से कई पूर्वाग्रह टूटे। सेकुलर होना मेरे लिए अब एक कोई राजनीतिक स्टैंड नहीं है। यह अब जीवनशैली का हिस्सा है। आसान नहीं है क्योंकि जाति और धर्म, अपने देश की राजनीति की कबाड़ साइकल के कभी न पंक्चर होने वाले दो पहिए हैं और लगभग हर दल को चुनाव में इसी जैसी एक साइकल पर सवार होने की आदत पड़ गई है, तो लगभग हर चुनाव के आसपास ऐसा जरूर कुछ होता या किया या कराया जाता है जिसकी वज़ह से जाति और धर्म के आधार पर नफरत जरूर बह रही होती है। उस बयार में भ्रामक सूचनाएँ बांटी जाती हैं और ऐसे में एक तार्किक व्यक्ति भी कब विक्टिम से परपीट्रेटर बन जाता है, पता ही नहीं चलता। बचपन में नहीं जानता था, काफी बाद में सहसा मैंने पूछा और पापा जी ने बताया था कि मेरा यह संस्कृत नाम श्रीश, मेरे पहले स्कूल 'इंडियन

Political Literacy: संप्रभुता (Sovereignty)

Image
28/04/2020 Image Source: Thesaurus.Plus संभव हो और आप अर्थशास्त्र से अर्थ निकाल लें, मनोविज्ञान से मन, बैंकिंग से बैंक, समाजशास्त्र से समाज और इतिहास से अतीत, तो इन सब्जेक्ट्स में कुछ बाकी नहीं रहेगा l ठीक उसीप्रकार राजनीतिशास्त्र में यदि संप्रभुता की अवधारणा निकाल दी जाय तो यह सब्जेक्ट अपना केन्द्रक खो देगा और निष्प्राण हो जाएगा l राजनीति के विद्यार्थी हों और संप्रभुता की अवधारणा से अनभिज्ञ या अस्पष्टता हो, तो अन्य सभी प्रयत्न अर्थहीन हैं l राजनीति का अध्ययन करते हुए बार-बार यह महसूस होगा कि एब्स्ट्रेक्ट इतने भी शक्तिशाली हो सकते हैं l राजनीति में जिन तथ्यों की साधिकार चर्चा की जाती है उनमें से अधिकांश कोई भौतिक सत्ता नहीं रखते, टैंजीबल नहीं हैं l लेकिन अपने प्रभाव में वे इतने प्रबल हैं कि उनका एब्स्ट्रेक्ट होने पर सहसा विश्वास नहीं होता l राज्य भी एक अवधारणा ही है, इसे आप स्पर्श नहीं कर सकते, यह हमारे मन में क्रमशः स्थापित एक अवधारणा है l हाँ, अवश्य ही राज्य के अन्यान्य एजेंसियों और एजेंटों से हम रूबरू होते हैं l यों ही संप्रभुता की अवधारणा भी एक एब्स्ट्रेक्ट ही है लेकिन यह राजनीति क

Political Literacy: संप्रभुता (Sovereignty)

Image
28/04/2020 Image Source: Thesaurus.Plus संभव हो और आप अर्थशास्त्र से अर्थ निकाल लें, मनोविज्ञान से मन, बैंकिंग से बैंक, समाजशास्त्र से समाज और इतिहास से अतीत, तो इन सब्जेक्ट्स में कुछ बाकी नहीं रहेगा l ठीक उसीप्रकार राजनीतिशास्त्र में यदि संप्रभुता की अवधारणा निकाल दी जाय तो यह सब्जेक्ट अपना केन्द्रक खो देगा और निष्प्राण हो जाएगा l राजनीति के विद्यार्थी हों और संप्रभुता की अवधारणा से अनभिज्ञ या अस्पष्टता हो, तो अन्य सभी प्रयत्न अर्थहीन हैं l राजनीति का अध्ययन करते हुए बार-बार यह महसूस होगा कि एब्स्ट्रेक्ट इतने भी शक्तिशाली हो सकते हैं l राजनीति में जिन तथ्यों की साधिकार चर्चा की जाती है उनमें से अधिकांश कोई भौतिक सत्ता नहीं रखते, टैंजीबल नहीं हैं l लेकिन अपने प्रभाव में वे इतने प्रबल हैं कि उनका एब्स्ट्रेक्ट होने पर सहसा विश्वास नहीं होता l राज्य भी एक अवधारणा ही है, इसे आप स्पर्श नहीं कर सकते, यह हमारे मन में क्रमशः स्थापित एक अवधारणा है l हाँ, अवश्य ही राज्य के अन्यान्य एजेंसियों और एजेंटों से हम रूबरू होते हैं l यों ही संप्रभुता की अवधारणा भी एक एब्स्ट्रेक्ट ही है लेकिन यह राजनीति क

वी शुड नीड टू रीबूट टूगेदर।

Image
(फिल्म थप्पड़ की समीक्षा- डॉ. श्रीश पाठक) -------- Image Source: Scroll आँख सचमुच देख नहीं पाती। सब सामने ही तो होता है। दूसरे करते हैं, हम करते हैं, लेकिन जो हम करते हैं, देख कहाँ पाते हैं। ऐसा शायद ही कोई हो, जिसका दावा यह हो कि उसने किसी पति को किसी पत्नी को एक बार भी मारते न देखा हो। उसकी हया के चर्चे हुए और इसके गुस्से को रौब कहा गया, और यों ही हम सलीकेदार कहलाये। सभ्यता का दारोमदार स्त्रियों को बना उन्हें जब कि लगातार यों ढाला गया कि वे नींव की ईंट बनकर खुश रहें, सजी रहें, पूजी जाती रहें, ठीक उसी समय उनका वज़ूद गलता रहा, आँखें देख न सकीं। हमें बस इतना ही सभ्य होना था कि हम समझ सकें कि जब मेहनत, प्रतिभा और आत्मविश्वास जेंडर देखकर नहीं पनपते तो फिर हमें एकतरफ़ा सामाजिक संरचना नहीं रचनी। अफ़सोस, हम इतने भी सभ्य न हो सके। बहुत तरह की मसाला फ़िल्मों के बीच एक उम्मीद की तरह कभी निर्देशक प्रकाश झा उभरे थे, जिन्होंने ऐसे मुद्दे अपनी फ़िल्मों में छूने शुरू किए, जिनपर समाज और राजनीति को खुलकर बात करने की जरूरत थी। बाद में उन्होंने अपनी फ़िल्मों में एक बीच का रास्ता ढूँढना शुरू किया जिसमें

बैक्टीरिया और वायरस

Image
27/04/2020 Image Source: Creative Market बैक्टीरिया शत्रु सेना समूह हैं, उनके आक्रमण पर हमारे शरीर के प्रतिरक्षा सैनिक तत्पर हो मुकाबला करते हैं। हमारे सैनिक हारते हैं तो शरीर बीमार हो मरता है। ज्यादातर हमारे सैनिक जीतते हैं और शरीर स्वस्थ हो जाता है। इस जीत की रणनीतियों की याद शरीर अपने में सुरक्षित कर लेता है, फिर भविष्य में भी यह अवसर आने पर इस्तेमाल की जाती है। शत्रु सेना समूह अपनी रणनीतियों में बदलाव करते हैं तो हमारे सैनिक भी। टीकाकरण, शिशु को किसी रोग के बेहद कमजोर बैक्टीरिया से संक्र मित करना है ताकि उसके शरीर के प्रतिरक्षा सैनिक उसे हराकर जरूरी रणनीतियों की याद को भविष्य के लिए संजो सके। वायरस चुगलखोर चिट्ठी सा है जिसमें भ्रामक सूचनाएँ हैं। इस चिट्ठी को पढ़ हमारे प्रतिरक्षा सैनिक भड़क सकते हैं, आपस में ही एक-दूसरे से लड़ने लग सकते हैं और फिर शरीर किसी भी बीमारी से लड़ने के लिए अपने सैनिकों को अक्षम पाता है और बीमार हो जाता है। हमारे प्रतिरक्षा सैनिक जब और जैसे ही जान पाते हैं कि यह वायरस की यह चिट्ठी झूठी है तो वे सम्हल जाते हैं और फिर पूरी शक्ति से लड़ने लग जाते हैं। कैसे एक

जिंदगी के स्वप्न फिर फिर आँख में पलने लगे हैं…!

Image
जिंदगी के स्वप्न फिर फिर आँख में पलने लगे हैं…! डॉ. श्रीश पाठक*  वही लाल सूरज जो कल शाम डूबा था, अल सुबह उगने को है l ये नवजात लाल सूरज ताजे चौबीस घंटों की नयी सौगात बेदम हिम्मतों को देने को आतुर है l उम्मीदों की सुतली को इतनी चिंगारी काफी है कि सुबह होगी, लाल सूरज फिर खिलेगा l डटे रहने के लिए, इतना आसमान काफी है कि मौसम बदलेगा l चमकते तारों के दीदार को रात के काले अँधेरे की दरकार होती है l अपने-अपने घरों में डटे हम लोग आजकल जिंदगी को जरा ज्यादा करीब से महसूस कर पा रहे हैं, अब इस मज़बूरी की अंधियारी रात में साथ के चमकते तारों को तो ढूँढना होगा l ये वही लोग हैं, जिनके साथ सुख सुकून शांति से रहने के लिए हम सहूलियतें जुटाते हुए दरबदर बाहर भटकते रहे हैं l कहीं पहुँचने के लिए दौड़ना तेज था, अब तेजी के लिए रोज दौड़े जा रहे हैं, लगी इस लत को समझने के लिए जिस ठहराव की जरुरत थी, उस ठहराव में हैं हम l यह ठहराव हमें अवसर दे रहा पुनरावलोकन का l  Dainik Bhaskar (Aha Zindgi) स्मृति तो हर जीव में न्यूनाधिक होती है लेकिन मनुष्य, कल्पना का वरदान लिए जन्मता है l स्मृति के सहयोग से कल्पना, मनुष्य में भविष्य

U Bookish?

Image
24/04/2020 Image Source: A Bookishhome सबसे ज्यादा बुरा तब लगता है जब कोई  # बुकिश  कह देता है। जबकि किताबें तैयार होने में केवल मेज, कुर्सी, कलम नहीं मांगतीं, उनमें लगा होता है कितना ही पसीना, रोजमर्रा के दुर्घर्ष और गिर-गिर कर उठ जाने का माद्दा. इसके बाद किताब लिखने के लिए एक शोध और एक अनुशासित पद्धति भी चाहिए होती है। कल कोई पुस्तक दिवस था। अच्छा लगा, लोग पढ़ते हैं किताबें, मानते हैं कि किताबों ने उन्हें संवारा है, कम से कम घर का एक कोना देना तो चाहते ही हैं किताबों को। जिंदगी इतनी बड़ी है और इसमें इतना कुछ है कि  अकेले और एक जीवन नाकाफी है इसे देखने के लिए। किताबें हमारी आँखें बनतीं हैं चुपचाप। हम सभी ही अपने-अपने यथार्थ में होते हैं और दुनिया को करीब से देख रहे होते हैं। चीजें, सभी को अपने तईं समझ आती ही हैं। लेकिन जैसे अपने शहर के मौसम और मिजाज को देख आप अपने देश का मौसम नहीं बता सकते, आपको जरूरत होती है मौसम विज्ञानी की, यों ही हम सभी को ताउम्र जरूरत होती है किताबों की। किताबों से हम बिना झुर्रियाँ बढ़ाये अपने जेहन की उम्र बढ़ा लेते हैं, इसके बगैर एक ऐसा अंधापन दिलोदिमाग पर चस्प

राजनीति विशेषज्ञ प्रभु दत्त शर्मा को अंतिम प्रणाम

Image
20/04/2020 उन दिनों (2002-05) जब मैं स्नातक का विद्यार्थी था गोरखपुर विश्वविद्यालय में तो राजनीति शास्त्र विषय से बहुत परेशान रहा करता था। सीनियर यथासम्भव समझाने के बाद अंततः कोटेशन रटने को कहते थे जो बीए में नंबर लाना है तो, बात सच भी थी, मूल्यांकन यों ही होता था। राजनीति के एक-दो अध्यापकों को छोड़कर किसी के बारे में क्या ही कुछ कहना, प्रणाम। आज सोचता हूँ कि सरकारी विश्वविद्यालय में नौकरी (योग्यता/अयोग्यता  के बाद भी) इतने पापड़ बेलने के बाद मिलती है तो अब उस जीव से और अधिक क्या ही उम्मीद करना। उन दिनों राजनीतिक विचारकों को समझना एक अलग ही स्वैग था। प्रकाशक-लेखक स्टार्ट-अप विधान में लिखी हुई कई किताबें थीं, जिनमें हर तीसरी पंक्ति में एक कोटेशन दिया होता था। परीक्षा में अंक के लिए तो वे यकीनन आदर्श थीं, लेकिन अंततः समझ नहीं आता था कुछ। क्या, कुछ, क्यों मन में बेचैन होकर बौखलाये से उमड़ते रहते थे। अपने यहाँ बक्शीपुर के पुस्तक विक्रेता कई बार स्पष्ट बताते थे कि कौन सी पुस्तक आपके लिए ठीक है। मैंने अपने किसी सीनियर से कहीं सुना कि पी डी शर्मा की बुक मिल जाए तो बहुत बढ़िया है थाॅट के लिए।

अमरीका को लेकर गफलत में कभी नहीं रहा।

Image
08/04/2020 Image Source: The Balance # अमरीका_को_लेकर_गफलत_में_कभी_नहीं_रहा । थोड़ा भ्रम उनकी आधुनिक सुविधाओं को लेकर जरूर था, लेकिन कोरोना ने वह भी साफ कर दिया। पूरी दुनिया में अपने रंगरूट बिछाने वाले और सभी छोटे बड़े अनगिन देशों को बम थमाने वाले देश के पास जरूरी दवा, मास्क और सैनीटाइजर पर्याप्त मात्रा में नहीं हैं। उनकी मीडिया इस शर्म से बचने के लिए अब बस चीन के खिलाफ कुछ कांसपिरेसी थ्योरीज ही जब तब कुक कर रही है। वहीं देखिए जर्मनी को, कितनी मजबूती से वह इस महामारी का सामना कर रहा है। दक्षिण कोरिया और चीन एशिया के चमकते सितारे हैं जिन्होंने इस महामारी में अपनी आंतरिक मजबूती का प्रदर्शन किया है, उम्मीद मुझे भारत से भी है। अमरीका की अर्थव्यवस्था का बबल तो सब प्राइम क्राइसिस में ही बर्स्ट हो गया था, लेकिन दो-दो विश्वयुद्धों से अर्जित साख से वह दुनिया भर के देशों को अमरीकी बॉन्ड बेचकर अपनी अर्थव्यवस्था को पटरी पर ला सका। यह अमरीका का भाग्य ही था कि कुर्सी पर ओबामा थे, ट्रंप के बस की तो नहीं ही थी। जब तक ब्रिटिश साम्राज्यवाद का घृणित इतिहास समझ पाया, स्नातक के वर्ष खत्म हो रहे थे। ब्रिटेन

Sorry for Realistic Pessimism

Image
07/04/2020 Image Source: The Medium I was really a naive one when in the beginning I used to think on the lines that it was actually the pressure of market forces which make a significant portion of media behave as mere loudspeaker of the government in the greed of handsome government advertisement. India is the vast land of diversity of people and of varied sets of opinions, profitability can be explored in other way round also. Earlier, I sensed the working of ABP news, they use d to take the anti government stand. They kept changing their stance as government got changed after the election. This channel always found its own kind of audience and kept going. Now, this channel too has changed its tone for long back. Now, I have begun to realise that regime concept is even bigger than to market forces. It's not market who could customise the design and pattern of regimes of a country but actually dominant regime of a country can mould the behavior and structure of market forces. Reg