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✍️रास्तों पर कांटें हैं, इन्हें गुलाब कहने भर से सफर नहीं कट सकता।

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Image Source: France24 डॉ. श्रीश पाठक वजहें अधिकतर नाजायज हैं और कुछ जायज हैं लेकिन यह सच है कि देश कोरोना से वैसे जूझ नहीं सका, जैसी उम्मीद थी। केंद्र सरकार मानो यह मानकर चल रही थी कि भारत में यह बीमारी अपने रौद्र रूप में नहीं आने पाएगी। जिस देश की सरकारें भ्रष्ट हों और कराधान का झोला बस बड़ा करने की फिराक में रहती हों, उद्योगपतियों के इशारे पर स्वास्थ्य, शिक्षा के बुनियादी क्षेत्रों के बाद रेलवे तक को निजीकरण की आग में झोंकने को बेताब हों, वहाँ कोरोना जैसी महामारी जानमाल के खतरनाक नुकसान के साथ व्यवस्था के अश्लील परतों को उघाड़ तो देगी ही। जरा सोचिए आज के दिन रेलवे निजी हाथों में होता तो क्या होता। सभी छोटे-बड़े डॉक्टर अगर निजी अस्पतालों में होते तो क्या होता। यह तो सभी जानते थे कि महज बड़बोलेपन से समुचित आर्थिक नीतियाँ नहीं बनतीं। अर्थव्यवस्था के सुर, भाजपा के पिछले कार्यकाल के आखिरी वर्ष में ही बिगड़ चुके थे, फिर देश ने एक बेहद खर्चीला चुनाव देखा। नोटबंदी ने मझोले व्यावसायियों की कमर तोड़ी थी, जिनसे अर्थव्यवस्था को जरूरी पुश मिलता है। भारत से आर्थिक रूप से कमजोर भी कुछ देश हैं जिन्