रूस-यूक्रेन संघर्ष: आक्रमण को नहीं जायज़ ठहराया जा सकता!
विश्व राजनीति के बहुतेरे मौक़े ऐसे कि उन्हें बस यथार्थवादी सिद्धांत से समझ सकते हैं। उदारवाद और मार्क्सवाद तो हाँफते नज़र आते हैं। हाँ, सामाजिक निर्मितिवाद ( Social constructivism) ज़रूर एक सीमा तक एक नज़रिया दे पाता है जिसके अनुसार राज्य क्रमशः वही करते हैं जैसे उनके समाज उन्हें निर्देश देते हैं।
अब जबकि रूस ने यूक्रेन पर आक्रमण कर दिया है, यह एक सरल स्पष्टीकरण है कि अमरीका सहित यूरोप ने रूस को कभी सहज नहीं होने दिया। रूस के इस कदम में कोई वैश्विक हित तो है नहीं, मुझे तो इसमें भविष्य में रूस का हित भी नहीं दिखता।
यथार्थवाद कहता है कि ’अपनी सुरक्षा आप’, ‘उत्तरजीविता’ और ‘राज्यवाद’ (Self-help, Survival and Statism) की नीति ही विश्व राजनीति में ध्रुव सत्य है।
अब देखिए यों तो रूस ने यूक्रेन पर आक्रमण के लिए अपने जिस परम मित्र चीन के द्वारा आयोजित शीतकालीन ओलम्पिक के समापन तक का इंतज़ार किया, उसके साथ यूक्रेन मेखला एवं मार्ग परियोजना (Belt and Road initiative) में भागीदार है। लेकिन चीन की भूमिका देखिए। यह भी देखिए कि इस समय जिस पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान इस समय मास्को में ‘ख़ासा उत्साहित’ हैं वह मुल्क पाकिस्तान, अमेरिका का मेजर नॉन नेटो अलाई (MNNA) है। होने को तो यूक्रेन भी नेटो का सदस्य नहीं तो भी नेटो के interoperability program में enhanced opportunity partner है। हाल के समय में जिस टर्की से बड़ी उम्मीदें लगा रखते हैं कुछ लोग कि शायद वह ईरान के साथ पश्चिम को एक चुनौती पेश करेगा वह नेटो का सदस्य राष्ट्र है लेकिन वह भी यूक्रेन के लिए क्या ही कर सका है! अंततः राष्ट्रों के नितांत व्यक्तिगत हित ही बहुधा प्रभावी दिखते हैं, बाद में भले ही प्रोफ़ेसर, पत्रकार उन्हें सिद्धांतों में सही-ग़लत बताते रहें।
यूक्रेन मुद्दे पर भारत की कुछ हद तक चीन के साथ नीतिगत साम्यता यों तो अजीब लगती है लेकिन पश्चिम ने और रास्ता ही क्या छोड़ा है? 2014 के क्राइमिया संकट के बाद भी अगर यूरोप अपने दूसरे सबसे बड़े मुल्क की सुरक्षा के पुख़्ता बंदोबस्त नहीं कर सकता तो भारत, पाकिस्तान और चीन जैसे दो घाघ परमाणु सशस्त्र देशों के बीच रहकर कैसे ही खुलकर अमेरिका और पश्चिम की गोद में बैठ जाए, कुछ पश्चिमी विश्लेषक मुँह फुलाते रहें। यूक्रेन के भारतीय राजदूत ने भारत से अपील की है कि हम अपने मित्र रूस से बात करें, आख़िर शांति सबके हित में है। प्रधानमंत्री मोदी ने पुतिन से बात कर अपील कर भी दी है, रूस इस अपील पर कान धरता है तो भी और नहीं सुनता तो भी, दोनों ही सूरतों में भारत की गुटनिरपेक्ष नीति ( स्वतंत्र विदेश नीति ) ही सबसे मुफ़ीद है। तथ्य यह भी है कि रूस से अधिक किसी और देश ने भारत की मदद नहीं की है, फिर भी विश्व राजनीति में किन्हीं एक-दो मुल्कों के सहारे नहीं बैठा रहा जा सकता। अफगानिस्तान में हमने अमेरिका को देखा है और यूक्रेन 2014 के बाद फिर से पश्चिम से आस लगाए हुए है।
रूस-चीन के पास कम से कम पश्चिम और यूरोप की उदारवादी वैश्विक व्यवस्था का कोई बेहतर विकल्प तो नहीं ही है। इसमें कम से कम यह गुंजाइश तो बनती है कि इसमें व्याप्त असमानता को जब तब चुनौती दी जा सके। रूस के इस कदम से दुनिया किसी स्थिरता की ओर तो नहीं जाने वाली, इससे बस कुछ और समय तक पुतिन रूस में अपनी दावेदारी मज़बूत रख सकेंगे। दुनिया जानती है कि रूस और चीन में विपक्ष में होना कैसा है? मै नहीं मानता कि रूस के इस आक्रमण के पीछे बस डोनबास का कोयला भंडार है। यूरोप का हर सातवाँ आदमी यूक्रेन से आता है और इस मुल्क के बाशिंदे आज अपनी जान गँवाने को मजबूर हैं क्योंकि रूस के मुताबिक़ ख़ास इतिहास के कारण एक स्वतंत्र राष्ट्र भी अपनी विदेश नीति और आर्थिक नीति नहीं तय कर सकता। आक्रमणकारी राष्ट्र के तौर पर रूस भी अमेरिका की तरह इतिहास की चुनिंदा घटनाओं की आड़ ले रहा है लेकिन सुस्पष्ट है रूस ने आक्रमण करने से पहले पिछले पाँच महीने में उससे बात करने के लिए की गयी हर कोशिश को उसने कोई तवज्जो नहीं दी है।
वैश्विक व्यवस्था को लेकर तो खैर रूस और चीन से कोई उम्मीद रखना ही एक कोरा भोलापन है, इन दोनों देशों ने पश्चिम की उदारवादी वैश्विक व्यवस्था की आलोचना करते-करते उसका खूब फ़ायदा उठाया है। लेकिन निराशा पश्चिमी देशों के खोखले नेतृत्व से भी है। यूक्रेन में मरता एक यूक्रेनी भी वैश्विक राजनीतिक व्यवस्था के सभी छोटे-बड़े हिस्सेदारों से प्रश्न करता मरेगा कि आखिर तुम्हारी भूमिका बस तुम्हारे लिए है या दुनिया के लिए भी है कुछ! यूक्रेन में फंसे भारतीय (करीब 16000) सुरक्षित अपने मुल्क पहुँचे, उन्हें कोई दिक्कत न हो, ऐसी उम्मीद मैं भारतीय विदेश प्रभाग से करता हूँ।
दुःख है कि विश्व-राजनीति में बहुधा यथार्थवाद ही हँसता रहता है, समाजवाद और उदारवाद बस बड़बड़ करते हैं।
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